पैंतीसवाँ अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: पैंतीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
ब्रम्हा जी के द्वारा ब्राहामणों की महत्ता का वर्णन।
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्राम्हण जन्म से ही महान भाग्यशाली, समस्त प्राणियों का वन्दनीय, अतिथि और प्रथम भोजन पाने का अधिकारी है। तात! ब्राम्हण सब मनोरथों को सिद्ध करने वाले, सबके सुहृद तथा देवताओं के मुख हैं। वे पूजित होने पर अपनी मंगलयुक्त वाणी से आशीर्वाद देकर मनुष्य के कल्याण का चिन्तन करते हैं। तात! हमारे शत्रुओं के द्वारा पूजित न होने पर उनके प्रति कुपित हुए ब्राम्हण उन सबको अभिशापयुक्त कठोर वाणी द्वारा नष्ट कर डालें। इस विषय में पुराणवेत्ता पुरुष पहले की गायी हुई कुछ गाथाओं का वर्णन करते हैं- प्रजापति ने ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्यों को पूर्ववत उत्पन्न करके उनको समझाया,'तुम लोगों के लिये विधिपूर्वक स्वधर्मपालन और ब्राम्हणों की सेवा के सिवा और कोई कर्तव्य नहीं है।' ब्राम्हण की रक्षा की जाये तो वह स्वयं भी अपने रक्षक की रक्षा करता है; अत: ब्राम्हण की सेवा में तुम लोगों का परम कल्याण होगा।' ‘ब्राम्हण की रक्षारूप अपने कर्तव्य का पालन करने से ही तुम लोगों को ब्राम्ही लक्ष्मी प्राप्त होगी। तुम सम्पूर्ण भूतों के लिये प्रमाणभूत तथा उनको वश में करने वाले बन जाओगे। ‘विद्वान ब्राम्हण को शूद्रोचित कर्म नहीं करना चाहिये। शूद्र के कर्म करने से उसका धर्म नष्ट हो जाता है।' ‘स्वधर्म का पालन करने से लक्ष्मी, बुद्धि, तेज और प्रतापयुक्त ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, तथा स्वाध्याय का अत्यधिक माहात्म्य उपलब्ध होता है। ‘ब्राम्हण आहवनीय अग्नि में स्थित देवतागणों को हवन से तृप्त करके महान सौभाग्यपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होते हैं।' वे ब्राम्ही विद्या से उत्तम पात्र बनकर बालकों से भी पहले भोजन पाने के अधिकारी होते हैं। ‘द्विजगण! यदि तुम लोग किसी भी प्राणी के साथ द्रोह न करने के कारण प्राप्त हुई परम श्रद्धा से सम्पन्न हो इन्द्रियसंयम और स्वाध्याय में लगे रहोगे तो सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लोगे।' ‘मनुष्यलोक में तथा देवलोक में जो कुछ भी भोग्य वस्तुऍं हैं, वे सब ज्ञान, नियम और तपस्या से प्राप्त होनेवाली हैं।' ‘आप लोगों के समादर से पवित्र हुए क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र आदि प्राणी इहलोक और परलोक में भी प्रीति एवं सम्पत्ति पाते हैं। जो आपके विरोधी हैं, वे आपसे अरक्षित होने के कारण विनाश को प्राप्त होते हैं। आपके तेज से ही ये सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं; अत: आप तीनों लोकों की रक्षा करें।' निष्पाप युधिष्ठिर! इस प्रकार ब्रम्हाजी की गायी हुई गाथा मैंने तुम्हें बतायी है। उन परम बुद्धिमान विधाता ने ब्राम्हणों पर कृपा करने के लिये ही ऐसा कहा है। मैं ब्राम्हणों का बल तपस्वी राजा के समान बहुत बड़ा मानता हूँ। वे दुर्जय, प्रचण्ड, वेगशाली और शीघ्रकारी होते हैं। ब्राहामणों में कुछ सिंह के समान शक्तिशाली होते हैं और कुछ व्याघ्र के समान। कितनों की शक्ति वाराह और मृग के समान होती है। कितने ही जल-जन्तुओं के समान होते हैं। किन्हीं का स्पर्श सर्प के समान होता है तो किन्हीं का घड़ियालों के समान। कोई शाप देकर मारते हैं तो कोई क्रोधभरी दृष्टि से ही भस्म कर देते हैं। कुछ ब्राम्हण विषधर सर्प के समान भयंकर होते हैं और कुछ मन्द स्वभाव के भी होते हैं। युधिष्ठिर! इस जगत में ब्राम्हणों के स्वभाव और आचार-व्यवहार अनेक प्रकार के हैं। मेकल, द्रविड़, लाट, पौण्ड, कान्वशिरा, शौण्डिक, दरद, दार्व, चौर, शबर, बर्बर, किरात और यवन- ये सब पहले क्षत्रिय थे; किंतु ब्राम्हणों के साथ ईर्ष्या करने से नीच हो गये। ब्राम्हणों के तिरस्कार से ही असुरों को समुद्र में रहना पड़ा और ब्राहामणों के कृपा प्रसाद से देवता स्वर्गलोक में निवास करते हैं। जैसे आकाश को छूना, हिमालय को विचलित करना और बाँध बाँधकर गंगा के प्रवाह को रोक देना असम्भ्ाव है, उसी प्रकार इस भूतल पर ब्राम्हणों को जीतना सर्वथा असम्भव है। ब्राम्हणों से विरोध करके भूमण्डल का राज्य नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि महात्मा ब्राम्हणों, देवताओं के भी देवता हैं। युधिष्ठिर! यदि तुम इस समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य भोगना चाहते हो तो दान और सेवा के द्वारा सदा ब्राहामणों की पूजा करते रहो। निष्पाप नरेश! दान लेने से ब्राम्हणों का तेज शान्त हो जाता है, इसलिये जो दान नहीं लेना चाहते उन ब्राम्हणों से तुम्हें अपने कुल की रक्षा करनी चाहिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्म पर्व में ब्राम्हण की प्रशंसाविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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