श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 31-42

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:२९, ११ जुलाई २०१५ का अवतरण ('== एकादश स्कन्ध : सप्तदशोऽध्यायः (17) == <div style="text-align:center; direction: ltr...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकादश स्कन्ध : सप्तदशोऽध्यायः (17)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तदशोऽध्यायः श्लोक 31-42 का हिन्दी अनुवाद


यदि ब्रम्हचारी का विचार हो कि मैं मूर्तिमान् वेदों के निवासस्थान ब्रम्हलोक में जाऊँ, तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रम्हचर्य-व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये। और वेदों के स्वाध्याय के लिये अपना सारा जीवन आचार्य की सेवा में ही समर्पित कर देना चाहिये । ऐसा ब्रम्हचारी सचमुच ब्रम्हतेज से सम्पन्न हो जाता है और उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे चाहिये कि अग्नि, गुरु, अपने शरीर और समस्त प्राणियों में मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सबके ह्रदय में एक ही परमात्मा विराजमान हैं । ब्रम्हचारी, वानप्रस्थ और संन्यासियों को चाहिये कि वे स्त्रियों को देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूर से ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियों पर तो दृष्टिपात तक न करें । प्रिय उद्धव! शौच, आचमन, स्नान, संध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणियों में मुझे ही देखना, मन, वाणी और शरीर का संयम—यह ब्रम्हचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी—सभी के लिये एक-सा नियम है। अस्पृश्यों को न छूना, अभक्ष्य वस्तुओं को न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिये उनसे न बोलना—ये नियम भी सबके लिये हैं । नैष्ठिक ब्रम्हचारी ब्राम्हण इन नियमों का पालन करने से अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है। तीव्र तपस्या के कारण उसके कर्म-संस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है । प्यारे उद्धव! यदि नैष्ठिक ब्रम्हचर्य ग्रहण करने की इच्छा न हो—गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्य को दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन-संस्कार करावे—स्नातक बनकर ब्रम्हचर्याश्रम छोड़ दे । ब्रम्हचारी को चाहिये कि ब्रम्हचर्य-आश्रम के बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे। यदि ब्राम्हण हो तो संन्यास भी ले सकता है। अथवा उसे चाहिये कि क्रमशः एक आश्रम से दूसरे आश्रम के में प्रवेश करे। किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रम के रहकर अथवा विपरीत क्रम से आश्रम-परिवर्तन कर स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो । प्रिय उद्धव! यदि ब्रम्ह्चर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रम्हचारी को चाहिये कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणों से सम्पन्न कुलीन कन्या से विवाह करे। वह अवस्था में अपने से छोटी और अपने ही वर्ण की होनी चाहिये। यदि कामववश अन्य वर्ण की कन्या से और विवाह करना हो तो क्रमशः अपने से निम्न वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता है । यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करने का अधिकार ब्राम्हण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को समानरूप से है। परन्तु दान लेते, पढ़ाते और यज्ञ कराने का अधिकार केवल ब्राम्हणों को ही है । ब्राम्हण को चाहिये कि इन तीनों वृत्तियों में प्रतिग्रह अर्थात् दान लेने की वृत्ति को तपस्या, तेज और यश का नाश करने वाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ कराने के द्वारा ही अपना जीवन-निर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियों में भी दोषदृष्टि हो—परावलम्बन, दीनता आदि दोष—दीखते हों—तो अन्न कटने के बाद खेतों में पड़े हुए दाने बीनकर ही अपने जीवन का निर्वाह कर ले । उद्धव! ब्राम्हण का शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नही है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायँ। यह तो जीवन-पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्त में अनन्त आनन्दस्वरुप मोक्ष की प्राप्ति करने के लिये है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-