श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 43-53
एकादश स्कन्ध : सप्तदशोऽध्यायः (17)
जो ब्राम्हण घर में रहकर अपने महान् धर्म का निष्कामभाव से पालन करता है और खेतों में तथा बाजारों में गिरे-पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्तःकरण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता हैं और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये भी परमशान्तिस्वरुप परमपद प्राप्त कर लेता है । जो लोग विपत्ति में पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राम्हण को विपत्तियों से बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियों से उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्र में डूबते हुए प्राणी को नौका बचा लेती है । राजा पिता के समान सारी प्रजा का कष्ट से उद्धार करे—उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजों की रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आपसे अपना उद्धार करे । जो राजा इस प्रकार प्रजा की रक्षा करता है, वह सारे पापों से मुक्त होकर अन्त समय में सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर चढ़कर स्वर्गलोक में जाता है और इन्द्र के साथ सुख भोगता है । यदि ब्राम्हण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादि से अपनी जीविका न चला करे, तो वैश्य-वृत्ति का आश्रय ले ले, और जब-तक विपत्ति दूर न हो जाय तब तक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्ति का सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियों की वृत्ति से अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्था में नीचों की सेवा—जिसे ‘श्वानवृत्ति’ कहते हैं—न करे । इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदि के द्वारा अपने जीवन का निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापर आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकार के द्वारा अथवा विद्यार्थियों को पढ़ाकर अपनी आपत्ति के दिन काट दे, परन्तु नीचों की सेवा, ‘श्वानवृत्ति’ का आश्रय कभी न ले ।
वैश्य भी आपत्ति के समय शूद्रों की वृत्ति सेवा से अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बनने आदि कारूवृत्ति का आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव! ये सारी बातें आपत्तिकाल के लिये ही हैं। आपत्ति का समय बीत जाने पर निम्नवर्णों की वृत्ति से जीविकोपार्जन करने का लोभ न करे । गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि वेदाध्ययन रूप ब्रम्हयज्ञ, तर्पण रूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, कालबलि आदि भूत यज्ञ और अन्नदानरूप अतिथियज्ञ आदि के द्वारा मेरे स्वरुपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे ।
गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीति से उपार्जित अपने शुद्ध धन से अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजन को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधि के साथ ही यज्ञ करे ।
प्रिय उद्धव! गृहस्थ पुरुष कुटुम्ब में आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होने पर भी भजन प्रमाद न करे। बुद्धिमान् पुरुष को यह बात समझ लेनी चाहिये कि जैसे इन लोक की सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोक के भोग भी नाशवान् ही हैं । यह जो स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु और गुरुजनों का मिलना-जुलना है, यह वैसे ही है, जैसे किसी प्याऊ पर कुछ बटोही इकट्ठे हो गये हों। सबको अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटने तक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलने वालों का सम्बन्ध ही बस, शरीर के रहने तक ही रहता है; फिर तो कौन किसको पूछता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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