श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 56 श्लोक 42-45
दशम स्कन्ध: षट्पञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (56) (उत्तरार्धः)
अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है’ । सत्राजित् ने अपनी विवेक-बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं । सत्यभामा शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद्गुणों से सम्पन्न थीं। बहुत०से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान् श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया । परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ने सत्राजित् से कहा—‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे। आप सूर्यभगवान् के भक्त हैं, इसीलिये वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उनके फल के, अर्थात् उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें’ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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