श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 58 श्लोक 1-12
दशम स्कन्ध: अथाष्टपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (58) (उत्तरार्धः)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब पाण्डवों का पता चल गया था कि वे लाक्षाभवन में जले नहीं हैं। एक बार भगवान् श्रीकृष्ण उनसे मिलने के लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यिक आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे । जब वीर पाण्डवों ने देखा कि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राण का का संचार होने पर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए । वीर पाण्डवों ने भगवान् श्रीकृष्ण का आलिंगन किया, उनके अंग-संग से इनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान् की प्रेम भरी मुसकराहट से सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्द में मग्न हो गये । भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और भीमसेन के चरणों में प्रणाम किया और अर्जुन को ह्रदय ले लगाया। नकुल और सहदेव ने भगवान् के चरणों की वन्दना की ॥ ४ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हो गये; तब परम सुन्दरी श्यामवर्णी द्रौपदी, जो नवविवाहिता होने के कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान् श्रीकृष्ण के पास आयी और उन्हें प्रणाम किया । पाण्डवों ने भगवान् श्रीकृष्ण के समान ही वीर सात्यिक का भी स्वागत-सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया। वे एक आसन पर बैठ गये। दूसरे यदुवंशियों का भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्ण के चारों ओर आसनों पर बैठ गये । इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अपनी फुआ कुन्ती के पास गये और उनके चरणों में प्रणाम किया। कुन्तीजी ने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने ह्रदय से लगा लिया। उस समय उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। कुन्तीजी ने श्रीकृष्ण से अपने भाई-बन्धुओं की कुशल-क्षेम पूछी और भगवान् ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधु द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मंगल पूछा । उस समय प्रेम की विह्वलता से कुन्तीजी का गला रूँध गया था, नेत्रों से आँसू बह रहे थे। भगवान् के पूछने पर उन्हें अपने पहले के क्लेश-पर-क्लेश याद आने लगे और वे अपने को बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त क्लेशों का अन्त करने के लिये ही हुआ करता है, उन भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगीं—
‘श्रीकृष्ण! जिस समय तुमने हम लोगों को अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मंगल जानने के लिये भाई अक्रूर को भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथों को तुमने सनाथ कर दिया । मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत् के परम हितैषी सुहृद और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस प्रकार की भ्रान्ति तुम्हारे अन्दर नहीं है। ऐसा होने पर भी, श्रीकृष्ण! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके ह्रदय में आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी क्लेश-परम्परा को सदा के लिये मिटा देते हो’ ।
युधिष्ठिरजी ने कहा—‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण! हमें इस बात का पता नहीं है कि हमने अपने पूर्वजन्मों में या इस जन्म में कौन-सा कल्याण साधन किया है ? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनता से प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियों को घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं’ । राजा युद्धिष्ठिर ने इस प्रकार भगवान् का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वही रहने की प्रार्थना की। इस पर भगवान् श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ के नर-नारियों को अपनी रूपमाधुरी से नयनानन्द का दान करते हुए बरसात के चार महीनों तक सुखपूर्वक वहीं रहे । पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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