श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 59 श्लोक 23-34
दशम स्कन्ध: एकोनषष्टितमोऽध्यायः (59) (उत्तरार्धः)
अब पृथ्वी भगवान् के पास आयी। उसने भगवान् श्रीकृष्ण के गले में वैजन्ती के साथ वनमाला पहना दी और अदिति माता के जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोने के एवं रत्नजटित थे, भगवान् को दे दिये तथा वरुण का छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी । राजन्! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओं के द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम करके हाथ जोड़कर भक्तिभाव भरे ह्रदय से उनकी स्तुति करने लगीं ।
पृथ्वीदेवी ने कहा—शंखचक्रगदाधारी देव-देवेश्वर! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन! आप अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी के अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको नमस्कार करती हूँ । प्रभो! आपकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है। आप कमल की माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमल से खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमल के समान सुकुमार और भक्तों के ह्रदय को शीतल करने वाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ । आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य के आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होने पर भी स्वयं वसुदेवनन्दन के रूप में प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणों के भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरुप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परन्तु इस जगत् के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियों के आश्रय ब्रम्हा हैं। जगत् का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैं—सब आपके ही स्वरुप हैं। परमात्मन! आपके चरणों में मेरे बार-बार नमस्कार ।
प्रभो! जब आप जगत् की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुण को, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुण को, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं सत्वगुण को स्वीकार करते हैं। परन्तु यह सब करने पर भी आप इन गुणों से ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनों के संयोग-वियोग के हेतु काल हैं तथा उन तीनों से परे भी हैं । भगवन्! मैं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, पंचतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महतत्व-कहाँ तक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्वरुप में भ्रम के कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है ।
शरणागत-भय-भंजन प्रभो! मेरे पुत्र भौमासुर का यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलों की शरण में ले आयी हूँ। प्रभो! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिरपर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत् के समस्त पाप-तापों को नष्ट करने वाला है ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब पृथ्वी ने भक्तिभाव से विनम्र होकर इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्त को अभयदान दिया और भौमासुर के समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न महल में प्रवेश किया । वहाँ जाकर भगवान् ने देखा कि भौमासुर ने बलपूर्वक राजाओं से सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं । जब उन राजकुमारियों ने अन्तःपुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण को देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतु की कृपा तथा अपना सौभग्य समझकर मन-ही-मन भगवान् को अपने परम प्रियतम पति के रूप में वरण कर लिया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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