श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 59 श्लोक 35-45
दशम स्कन्ध: एकोनषष्टितमोऽध्यायः (59) (उत्तरार्धः)
उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मन में यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषा को पूर्ण करें।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भाव से अपना ह्रदय भगवान् के प्रति निछावर कर दिया । तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियों को सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों से द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी । ऐरावत के वंश में उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतों वाले सफेद रंग के चौंसठ हाथी भी भगवान् ने वहाँ से द्वारका भेजे ।
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्र के महलों में गये। वहाँ देवराज इन्द्र ने अपनी पत्नी इन्द्राणी के साथ सत्यभामाजी और भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की, तब भगवान् ने अदिति के कुण्डल उन्हें दे दिये । वहाँ से लौटते समय सत्यभामाजी की प्रेरणा से भगवान् श्रीकृष्ण ने कल्पवृक्ष उखाड़कर गरुड़ पर रख दिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओं को जीतकर उसे द्वारका ले आये । भगवान् ने उसे सत्यभामा के महल के बगीचे में लगा दिया। इससे उस बगीचे की शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्ष के साथ उसके गन्ध और और मकरन्द के लोभी भौरें स्वर्ग से द्वारका में चले आये थे । परीक्षित्! देखो तो सही, जब इन्द्र को अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुट की नोक से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके उनसे सहायता की भिक्षा माँगी थी, परन्तु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण से लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यता का है। धिक्कार है ऐसी धनाढ्यता को ।
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने एक ही मुहूर्त में अलग-अलग भवनों में अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियों का शास्त्रोक्त विधि से पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान् के लिये इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है । परीक्षित्! भगवान् की पत्नियाँ के अलग-अलग महलों में ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत् में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिक की तो बात ही क्या है। उन महलों में रहकर मति-गति के परे की लीला करने वाले अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्द में मग्न रहते हुए लक्ष्मीजी की अंशस्वरूपा उन पत्नियों के साथ ठीक वैसे ही ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थी में रहकर गृहस्थ-धर्म के अनुसार आचरण करता हो । परीक्षित्! ब्रम्हा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान् के वास्तविक स्वरुप को और उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ाने वाली लज्जा से युक्त होकर सब प्रकार से भगवान् की सेवा करती रहती थीं । उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महल में भगवान् पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट थकावट दूर करतीं, पंखा झलती, इत्र-फुलेल, चन्दन, चन्दन आदि लगतीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान् की सेवा करतीं ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब पृथ्वी ने भक्तिभाव से विनम्र होकर इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्त को अभयदान दिया और भौमासुर के समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न महल में प्रवेश किया । वहाँ जाकर भगवान् ने देखा कि भौमासुर ने बलपूर्वक राजाओं से सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं । जब उन राजकुमारियों ने अन्तःपुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण को देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतु की कृपा तथा अपना सौभग्य समझकर मन-ही-मन भगवान् को अपने परम प्रियतम पति के रूप में वरण कर लिया ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-