श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 63 श्लोक 1-17

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दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितमोऽध्यायः(63) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

भगवान् श्रीकृष्ण के साथ बाणासुर का युद्ध

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! बरसात के चार महीने बीत गये। परन्तु अनिरुद्धजी का कहीं पता न चला। उनके घर के लोग, इस घटना से बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे । एक दिन नारदजी ने आकर अनिरुद्ध का शोणितपुर जाना, वहाँ बाणासुर के सैनिकों को हराना और फिर नागपाशमें बाँध जाना—यह सारा समाचार सुनाया। तब श्रीकृष्ण को ही अपना आराध्यदेव मानने वाले यदुवंशियों ने शोणितपुर पर चढ़ाई कर दी । अब श्रीकृष्ण और बलरामजीजी के साथ उनके अनुयायी सभी यदुवंशी—प्रद्दुम्न, सात्यिक, गद्, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द और भद्र आदि से बारह अक्षौहिणी सेना के साथ व्यूह बनाकर चारों ओर से बाणासुर की राजधानी को घेर लिया । जब बाणासुर ने देखा कि यदुवंशियों की सेना नगर के उद्यान, परकोटों, बुर्जों और सिंहद्वारों को तोड़-फोड़ रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह भी बारह अक्षौहिणी सेना लेकर नगर से निकल पड़ा । बाणासुर की ओर से साक्षात् भगवान् शंकर वृषभराज नन्दी पर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणों के साथ रणभूमि में पधारे और उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी से युद्ध किया । परीक्षित्! वह युद्ध इतना अद्भुत और घमासान हुआ कि उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। भगवान् श्रीकृष्ण से शंकरजी का और प्रदुम्न से स्वामी कार्तिकेय का युद्ध हुआ । बलरामजी से कुम्भाण्ड और कूपकर्ण का युद्ध हुआ। बाणासुर के पुत्र के साथ साम्ब और स्वयं बाणासुर के साथ सात्यिक भिड़ गये । ब्रम्हा आदि बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, सिद्ध-चारण, गन्धर्व-अप्सराएँ और यक्ष विमानों पर चढ़-चढ़कर युद्ध देखने के लिये आ पहुँचे । भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने शारंगधनुष के तीखी नोक वाले बाणों से शंकरजी के अनुचरों—भूत, प्रेत, प्रमथ, गुह्यक, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक, प्रेतगण, मातृगण, पिशाच, कूष्माण्ड और ब्रम्ह-राक्षसों को मार-मारकर खदेड़ दिया । पिनाकपाणि शंकरजी ने भगवान् श्रीकृष्ण पर भाँति-भाँति के अगणित अस्त्र-शास्त्रों का प्रयोग किया, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने बिना किसी प्रकार के विस्मय के उन्हें विरोधी शस्त्रास्त्रों से शान्त कर दिया । भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रम्हास्त्र की शान्ति के लिये ब्रम्हास्त्र का, वायव्यास्त्र के लिये पर्वतास्त्र का, आग्नेयास्त्र के लिये पर्जन्यास्त्र का और पाशुपतास्त्र के लिये नारायणास्त्र का प्रयोग किया । इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र से (जिससे मनुष्य को जँभाई-पर-जँभाई आने लगती है) महादेवजी को मोहित कर दिया। वे युद्ध से विरत होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान् श्रीकृष्ण शंकरजी से छुट्टी पाकर तलवार, गदा और बाणों से बाणासुर की सेना कर संहार करने लगे । इधर प्रद्दुम्न ने बाणों की बौछार से स्वामिकार्तिक को घायल कर दिया, उनके अंग-अंग से रक्त की धारा बह चली, वे रणभूमि छोड़कर अपने वाहन मयूर द्वारा भाग निकले । बलरामजी ने अपने मूसल की चोट से कुम्भाण्ड और कुपकर्ण को घायल कर दिया, वे रणभूमि में गिर पड़े। इस प्रकार अपने सेनापतियों को हताहत देखकर बाणासुर की सारी सेना तितर-बितर हो गयी ।

जब रथ पर सवार बाणासुर ने देखा कि श्रीकृष्ण आदि के प्रहार से हमारी सेना तितर-बितर और तहस-नहस हो रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिढ़कर सात्यिक को छोड़ दिया और वह भगवान् श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने के लिये दौड़ पड़ा ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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