श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 68 श्लोक 1-15
दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितमोऽध्यायः (68) (उत्तरार्धः)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जाम्बती-नन्दन साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरों पर विजय प्राप्त करने वाले थे। वे स्वयंवर में स्थित दुर्योधन की कन्या लक्षमणा को हर लाये । इससे कौरवों को बड़ा क्रोध हुआ, वे बोले—‘यह बालक बहुत ढीठ है। देखो तो सही, इसने हम लोगों को नीचा दिखाकर बलपूर्वक हमारी कन्या का अपहरण कर लिया। वह तो इसे चाहती भी न थी । अतः इस ढीठ को पकड़कर बाँध लो। यदि यदुवंशी लोग रुष्ट भी होंगे तो वे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे ? वे लोग हमारी ही कृपा से हमारी ही दी हुई धन-धान्य से परिपूर्ण पृथ्वी का उपभोग कर रहे हैं । यदि वे लोग अपने इस लड़के के बंदी होने का समाचार सुनकर यहाँ आयेंगे, तो हम लोग उसका सारा घमंड चूर-चूर कर देंगे और उन लोगों के मिजाज वैसे ही ठंडे हो जायँगे, जैसे संयमी पुरुष के द्वारा प्राणायाम आदि उपायों से वश में की हुई इन्द्रियाँ ’। ऐसा विचार करके कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरों ने कुरुवंश के बड़े-बूढ़ों की अनुमति ली तथा साम्ब को पकड़ लेने की तैयारी की ।
जब महारथी साम्ब ने देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंह के समान अकेले ही रणभूमि में डट गये । इधर कर्ण को मुखिया बनाकर कौरव वीर धनुष चढ़ाये हुए साम्ब के पा आ पहुँचे और क्रोध में भरकर उनको पकड़ लेने की इच्छा से ‘खड़ा रह! खड़ा रह!’ इस प्रकार ललकारते हुए बाणों की वर्षा करने लगे । परीक्षित्! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र थे। कौरवों के प्रहार से वे उन पर चिढ़ गये, जैसे सिंह तुच्छ हरिनों का पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है । साम्ब अपने सुन्दर धनुष की टंकार करके कर्ण आदि छः वीरों पर, जो अलग-अलग छः रथों पर सवार थे, छः-छः बाणों से एक साथ अलग-अलग प्रहार किया ।
उनमें से चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ों पर, एक-एक उनके सारथियों पर और एक-एक उन महान् धनुषधारी रथी वीरों पर छोड़ा। साम्ब के इस अद्भुत हस्तलाघव को देखकर विपक्षी वीर भी मुक्तकण्ठ से उनकी प्रशंसा करने लगे । इसके बाद यह छहों वीरों ने एक साथ मिलकर साम्ब को रथहीन कर दिया। चार वीरों ने एक-एक बाण से उनके चार घोड़ों को मारा, एक ने सारथि को एक ने साम्ब का धनुष काट डाला । इस प्रकार कौरवों ने युद्ध में बड़ी कठिनाई और कष्ट से साम्ब को रथहीन करके बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्षमणा को लेकर जय मानते हुए हस्तिनापुर लौट आये ।
परीक्षित्! नारदजी से यह समाचार सुनकर यदुवंशियों को बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेन की आज्ञा से कौरवों पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे । बलरामजी कलहप्रधान कलियुग के सारे पाप-ताप मिटाने वाले हैं। उन्होंने कुरुवाशियों और यदुवंशियों के लड़ाई-झगड़े को ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और स्वयं सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर सवार होकर हस्तिनापुर गये। उनके साथ कुछ ब्राम्हण और यदुवंश के बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीच में बलरामजी की ऐसी शोभा हो रही थी, मानो चन्द्रमा ग्रहों से घिरे हुए हों ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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