श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 68 श्लोक 42-54
दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितमोऽध्यायः (68) (उत्तरार्धः)
हल से खींचने पर हस्तिनापुर इस प्रकार काँपने लगा, मानो जल में कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवों ने देखा कि हमारा नगर तो गंगाजी में गिर रहा है, तब वे घबड़ा उठे । फिर उन लोगों ने लक्षमणा के साथ साम्ब को आगे किया और अपने प्राणों की रक्षा के लिये कुटुम्ब के साथ हाथ जोड़कर सर्वशक्तिमान् उन्हीं भगवान् बलरामजी की शरण में गये और कहने लगे— ‘लोकाभिराम बलरामजी! आप सारे जगत् के आधार शेषजी हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो! हम लोग मूढ़ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हम लोगों के अपराध क्षमा कर दीजिये । आप जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं। सर्वशक्तिमान् प्रभो! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये सब-के-सब लोग आपके खिलौने हैं ।
अनन्त! आपके सहस्त्र-सहस्त्र सिर हैं और आप खेल-खेल में ही इस भूमण्डल को अपने सिर पर रखे रहते हैं। जब प्रलय का समय आता है, तब आप सारे जगत् को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे रहकर अद्वितीयरूप से सहायक करते हैं । भगवन्! आप जगत् की स्थिति और पालन के लिये विशुद्ध सत्वमय शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सर के कारण नहीं है। यह तो समस्त प्राणियों को शिक्षा देने के लिये है । समस्त शक्तियों को धारण करने वाले सर्वप्राणिस्वरुप अविनाशी भगवन्! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त विश्व के रचयिता देव! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरण में हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये’।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कौरवों का नगर डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहट में पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस प्रकार भगवान् बलरामजी की शरण में आये और उनकी स्तुति-प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और ‘डरो मत’ ऐसा कहकर उन्हें अभयदान दिया । परीक्षित्! दुर्योधन अपनी पुत्री लक्षमणा से बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेज़ में साठ-साठ वर्ष के बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूर्य के समान चमकते हुए सोने के छः हजार रथ और सोने के हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दीं । यदुवंशशिरोमणि भगवान् बलरामजी ने यह सब दहेज़ स्वीकार किया और नवदम्पत्ति लक्षमणा तथा साम्ब के साथ कौरवों का अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारका की यात्रा की । अब बलरामजी द्वारकापुरी में पहुँचे और अपने प्रेमी तथा समाचार जानने के लिये उत्सुक बन्धु-बान्धवों से मिले। उन्होंने यदुवंशियों की भरी सभा में अपना वह सारा चरित्र कह सुनाया, जो हस्तिनापुर में उन्होंने कौरवों के साथ किया था । परीक्षित्! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिण की ओर ऊँचा और गंगाजी की ओर कुछ झुका हुआ है और इस प्रकार वह बलरामजी के पराक्रम की सूचना दे रहा है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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