श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 33-42
एकादश स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्यायः (22)
आत्म ज्ञानस्वरुप हैं; उसका इन पदार्थों से न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवाद की ही बात है। अस्ति-नास्ति (है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य-मिथ्या आदि रूप से जितने भी वाद-विवाद हैं, सबका मूल कारण भेददृष्टि ही है। इसमें सन्देह नहीं कि इस विवाद का का कोई प्रयोजन नहीं है; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे—अपने वास्तविक स्वरुप से विमुख हैं, वे इस विवाद से मुक्त नहीं हो सकते ।
उद्धवजी ने पूछा—भगवन्! आपसे विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य-पापों के फलस्वरुप ऊँची-नीची योनियों में जाते-आते रहते हैं। अब प्रश्न यह है कि व्यापक आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना, अकर्ता का कर्म करना और नित्य-वस्तु का जन्म-मरण कैसे सम्भव है ? गोविन्द! जो लोग आत्मज्ञान से रहित हैं, वे तो इस विषय को ठीक-ठीक सोच भी नही सकते। और इस विषय के विद्वान् संसार में प्रायः मिलते नहीं, क्योंकि सभी लोग आपकी माया की भूल-भुलैया में पड़े हुए हैं। इसलिये आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! मनुष्यों का मन कर्म-संस्कारों का पुंज है। उन संस्कारों के अनुसार भोग प्राप्त करने के लये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं। इसी का नाम है लिंगशरीर। वही कर्मों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक लोक से दूसरे लोक में आता-जाता रहता है। आत्मा इस लिंगशरीर से सर्वथा पृथक् है। उसका आना-जाना नहीं होता; परन्तु जब वह अपने को लिंगशरीर ही समझ बैठता है, उसी में अहंकार कर लेता है, तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है । मन कर्मों के अधीन है। वह देखे हुए या सुने हुए विषयों का चिन्तन करने लगता है और क्षण भर में ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्वचिन्तित विषयों में लीन हो जाता है। धीरे-धीरे उसकी स्मृति, पूर्वापर का अनुसन्धान भी नष्ट हो जाता है । उन देवादि शरीरों में इसका इतना अभिनिवेश, इतनी तल्लीनता हो जाती है कि जीव को अपने पूर्व शरीर का स्मरण भी नहीं रहता। किसी भी कारण से शरीर को सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है । उदार उद्धव! जब यह जीव किसी भी शरीर को अभेद-भाव से ‘मैं’ के रूप में स्वीकार कर लेता है, तब उसे ही जन्म कहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे स्वपनकालीन और मनोरथकालीन शरीर में अभिमान करना ही स्वपन और मनोरथ कहा जाता है । यह वर्तमान देह में स्थित जीव जैसे पूर्व देह का स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वपन या मनोरथ में स्थित जीव भी पहले के स्वप्न और मनोरथ को स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथ में पूर्व सिद्ध होने पर भी अपने को नवीन-सा ही समझता है । इन्द्रियों के आश्रय मन या शरीर की सृष्टि से आत्मवस्तु में यह उत्तम, मध्यम और अधम की त्रिविधता भासती है। उसमें अभिमान करने से ही आत्मा बाह्य और आभ्यन्तर भेदों का हेतु मालूम पड़ते लगता है, जैसे दुष्ट पुत्र को उत्पन्न करने वाला पिता पुत्र के शत्रु-मित्र आदि के लिये भेद का हेतु हो जाता है । प्यारे उद्धव! काल की गति सूक्ष्म है। उसे साधारणतः देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरों की उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होने के कारण ही प्रतिक्षण होने वाले जन्म-मरण नहीं दीख पड़ते ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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