श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 40-49
एकादश स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23)
कोई उस अवधूत की हँसी उड़ाता, तो कोई उस पर अधोवायु छोड़ता। जैसे लोग तोता-मैना आदि पालतू पक्षियों को बाँध लेते या पिंजड़े में बंद कर लेते हैं, वैसे ही उसे भी वे लोग बाँध देते और घरों में बंद कर देते । किन्तु वह सब चुपचाप सह लेता। उसे कभी ज्वर आदि के कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सर्दी आदि से दैवी कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जन लोग अपमान आदि के द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते; परन्तु भिक्षुक के मन में इससे कोई विकार न होता। वह समझता कि यह सब मेरे पूर्णजन्म के कर्मों का फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा । यद्यपि नीच मनुष्य तरह-तरह के तिरस्कार करके उसे उसके धर्म से गिराने की चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़ता से अपने धर्म में स्थिर रहता और सात्विक धैर्य का आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद्गार प्रकट किया करता ।
ब्राम्हण कहता—मेरे सुख अथवा दुःख का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मन को ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसार-चक्र को चला रहा है । सचमुच यह मन बहुत बलवान् हैं। इसी ने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रहने वाली वृत्तियों की सृष्टि की है। उन वृतियों के अनुसार ही सात्विक, राजस और तामस—अनेकों प्रकार के कर्म होते हैं और कर्मों के अनुसार ही जीव की विविध गतियाँ होती हैं । मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहने पर भी आत्मा निष्क्रिय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीव का सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञान से सब कुछ देखता रहता है। मन के द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती हैं। जब वह मन को स्वीकार करके उसके द्वारा विषयों का भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मों के साथ आसक्ति होने के कारण व उनसे बँध जाता है ।
दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रम्हचर्यादी श्रेष्ठ व्रत—इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान् में लग जाय। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है । जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मों का फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है। और जिसका मन चंचल है अथवा आलस्य से अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकर्मों से अब तक कोई लाभ नहीं हुआ । सभी इन्द्रियाँ मन के वश में हैं। मन किसी भी इन्द्रिय के वश में नहीं है। यह मन बलवान् से भी बलवान्, अत्यन्त भयंकर देव है। जो इसको अपने वश में कर लेता है, वही देव-देव—इन्द्रियों का विजेता है । सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीर को ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानों को भी बेधता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्यों को चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रु पर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतने का प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्यों से झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत् के लोगों को ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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