श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 30-36

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एकादश स्कन्ध : पञ्चविंशोऽध्यायः (25)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पञ्चविंशोऽध्यायः श्लोक 30-36 का हिन्दी अनुवाद


उद्धवजी! द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव-मनुष्य-तिर्यगादि शरीर और निष्ठा—सभी त्रिगुणात्मक हैं । नररत्न! पुरुष और प्रकृति के आश्रित जितने भी भाव हैं, सभी गुणमय हैं—वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियों से अनुभव किये हुए हों, शास्त्रों के द्वारा लोक-लोकान्तरों के सम्बन्ध में सुने गये हों अथवा बुद्धि के द्वारा सोचे-विचारे गये हों । जीव को जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब उनके गुणों और कर्मों के अनुसार ही होती हैं। हे सौम्य! सब-के-सब गुण चित्त से ही सम्बन्ध रखते हैं (इसलिये जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है) जो जीव उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह भक्तियोग के द्वारा मुझमें ही परिनिष्ठ हो जाता है और अन्ततः मेरा वास्तविक स्वरुप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है । यह मनुष्य शरीर बहुत दुर्लभ है। इसी शरीर में तत्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञान की प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान् पुरुषों को गुणों की आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिये । विचार शील पुरुष को चाहिये कि बड़ी सावधानी से सत्वगुण के सेवन से रजोगुण और तमोगुण को जीत ले, इन्द्रियों को वश में कर ले और मेरे स्वरुप को समझकर मेरे भजन में लग जाय। आसक्ति को लेशमात्र भी न रहने दे । योग युक्ति से चित्तवृत्तियों को शान्त करके निरपेक्षता के द्वारा सत्वगुण पर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणों से मुक्त होकर जीव अपने जीव भाव को छोड़ देता है और मुझसे एक हो जाता है । जीव लिंग शरीर रुप अपनी उपाधि जीवत्व से तथा अन्तःकरण में उदय होने वाली सात्वादि गुणों की वृत्तियों से मुक्त होकर मुझ ब्रम्ह की अनुभूति से एकत्व दर्शन से पूर्ण हो जाता है और वह फिर बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी विषय में नहीं जाता ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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