श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 26 श्लोक 1-12
एकादश स्कन्ध: षड्विंशोऽध्यायः (26)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! वह मनुष्य शरीर मेरे स्वरुप ज्ञान की प्राप्ति का—मेरी प्राप्ति का मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अन्तःकरण में स्थित मुझ आनन्दस्वरुप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । जीवों की सभी योनियाँ, सभी गतियाँ त्रिगुणमयी हैं। जीव ज्ञाननिष्ठा के द्वारा उनसे सदा के लिये मुक्त हो जाता है। सत्व-रज आदि गुण जो दीख रहे हैं वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं। ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी, उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बँधता नहीं। इसका कारण यह है कि गुणों की वास्तविक सत्ता हो नहीं है । साधारण लोगों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग विषयों के सेवन और उदरपोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करे; क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दशा होती हैं, जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की। उसे तो घोर अन्धकार में ही भटकना पड़ता है । उद्धवजी! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरुरवा उर्वशी के विरह से अत्यन्त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गायी । राजा पुरुरवा नग्न होकर पागल की भाँति अपने को छोड़कर भागती हुई उर्वशी के पीछे अत्यन्त विह्वल होकर दौड़ने लगा और कहने लगा—देवि! निष्ठुर हृदये! थोड़ी देर ठहर जा, भाग मत’ । उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गये थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ी और न तो आतीं ।
पुरुरवा ने कहा—हाय-हाय! भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया! उर्वशी ने अपनी बाहुओं से मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयु के न जाने कितने वर्ष खो दिये। ओह! विस्मृति की भी एक सीमा होती हैं । हाय-हाय! इसने मुझे लुट लिया। सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ—यह भी मैं न जान सका। बड़े खेद की बात है कि बहुत-से वर्षों के दिन-पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूम तक न पड़ा । अहो! आश्चर्य है! मेरे मन में इतना मोह बढ़ गया, जिसने नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरुरवा को भी स्त्रियों का क्रीडामृग (खिलौना) बना दिया । देखो, मैं प्रजा को मर्यादा में रखने वाला सम्राट् हूँ। वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल नंग-धडंग रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा। हाय! हाय! यह भी कोई जीवन है । मैं गधे की तरह दुलत्तियाँ सहकर भी स्त्री के पीछे-पीछे दौड़ता रहा; फिर मुझमें प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है । स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं। और इसमें सन्देह नहीं कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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