श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 28 श्लोक 26-33

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:०९, ११ जुलाई २०१५ का अवतरण ('== एकादश स्कन्ध : अष्टाविंशोऽध्यायः (28) == <div style="text-align:center; direc...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकादश स्कन्ध : अष्टाविंशोऽध्यायः (28)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंशोऽध्यायः श्लोक 26-33 का हिन्दी अनुवाद


जैसे वायु आकाश को सूखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओं के गुण गरमी-सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते—क्योंकि ये सब आने-जाने वाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका एकरस अधिष्ठान है—वैसे ही सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्मा का स्पर्श नहीं कर पाते; वह तो इनसे सर्वथा परे है। इनके द्वारा तो केवल वही संसार में भटकता है जो इनमें अहंकार कर बैठता है । उद्धवजी! ऐसा होने पर भी तब तक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्यों का संग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जब तक मेरे सुदृढ़ भक्ति योग के द्वारा मन का रजोगुण रूप मल एकदम निकल न जाय । उद्धवजी! जैसे भलीभाँति चिकित्सा न करने पर रोग का समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्य को सताया करता है; वैसे ही जिस मन की वासनाएँ और कर्मों के संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री-पुत्र आदि में आसक्त है, वह बार-बार अधूरे योगी को बेधता रहता है और उसे कई बार योगभ्रष्ट भी कर देता है । देवताओं के द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदि के द्वारा किये हुए विघ्नों से यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाय तो भी वह अपने पूर्वाभ्यास के कारण पुनः योगाभ्यास में ही लग जाता है। कर्म आदि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती । उद्धवजी! जीव संस्कार आदि से प्रेरित होकर जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कर्म में ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारों को प्राप्त होता रहता है। परन्तु जो तत्व का साक्षात्कार कर लेता है, वह प्रकृति में स्थित रहने पर भी संस्कारानुसार कर्म होते रहने पर भी उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारों से युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरुप आत्मा के साक्षात्कार से उसकी संसार सम्बन्धी सभी आशा-तृष्णाएँ पहले से ही नष्ट हो चुकी होती हैं । जो अपने स्वरुप में स्थित हो गया है, उसे इस बात का भी पता नहीं रहता कि शरीर खड़ा है या बैठा, चल रहा है या सो रहा है, मल-मूत्र त्याग रहा है, भोजन कर रहा है अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्मस्वरुप में स्थित—ब्रम्हाकार रहती है । यदि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि में इन्द्रियों के विविध बाह्य विषय, जो कि असत् हैं, आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मा से भिन्न नहीं मानता, क्योंकि वे युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूति से सिद्ध नहीं होते। जैसे नींद टूट जाने पर स्वप्न में देखे हुए और जागने पर तिरोहित हुए पदार्थों को कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपने से भिन्न प्रतीयमान पदार्थों को सत्य नहीं मानते । उद्धवजी! (इसका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञानी ने आत्मा का त्याग कर दिया है और ज्ञानी उसको ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि) अनेकों प्रकार के गुण और कर्मों से युक्त देह, इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञान के कारण आत्मा से अभिन्न मान लिये गये थे, उनका विवेक नहीं था। अब आत्मदृष्टि होने पर अज्ञान और उसके कार्यों की निवृत्ति हो जाती है। इसलिये अज्ञान की निवृत्ति ही अभीष्ट है। वृत्तियों के द्वारा न तो आत्मा का ग्रहण हो सकता है और न त्याग ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-