श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 15-28

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एकादश स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः (30)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद


मतवाले यदुवंशी रथों, हाथियों, घोड़ों, गधों, ऊँटों, खच्चरों, बैलों, भैसों और मनुष्यों पर भी सवार होकर एक-दूसरे को बाणों से घायल करने लगे—मानो जंगली हाथी एक-दूसरे पर दाँतों से चोट कर रहे हों। सबकी सवारियों पर ध्वजाएँ फहरा रही थीं, पैदल सैनिक भी आपस में उलझ रहे थे । प्रद्दुम्न साम्ब से, अक्रूर भोज से, अनिरुद्ध सात्यकि से, सुभद्र संग्रामजित् से, भगवान् श्रीकृष्ण के भाई गद उसी नाम के उनके पुत्र से और सुमित्र सुरथ से युद्ध करने लगे। ये सभी बड़े भयंकर युद्ध थे और क्रोध में भरकर एक दूसरे का नाश करने पर टूल गये थे । इनके अतिरिक्त निशठ, उल्मुक, सहस्त्रजित्, शतजित् और भानु आदि यादव भी एक-दूसरे से गूँथ गये। भगवान् श्रीकृष्ण की माया ने तो इन्हें अत्यन्त मोहित कर ही रखा था, इधर मदिरा के नशे ने भी इन्हें अंधा बना दिया था । दशार्ह, वृष्णि, अन्धक, भोज, सात्वत, मधु, अर्बुद, माथुर, शूरसेन, विसर्जन, कुकुर और कुन्ति आदि वंशों के लोग सौहार्द और प्रेम को भुलाकर आपस में मार-काट करने लगे । मूढ़तावश पुत्र पिता का, भाई भाई का, भानजा मामा का, नाती नाना का, मित्र मित्र का, सुहृद् सुहृद् का, चाचा भतीजे का तथा एक गोत्र वाले आपस में एक-दूसरे का खून करने लगे । अन्त में जब उनके सब बाण समाप्त हो गये, धनुष टूट गये और शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये तब उन्होंने अपने हाथों से समुद्रतट पर लगी हुई एरका नाम की घास उखाड़नी शुरू की। यह वही घास थी, जो ऋषियों के शाप के कारण उत्पन्न हुए लोहमय मूसल के चूरे से पैदा हुई थी । हे राजन्! उनके हाथों में आते ही वह घास वज्र के समान कठोर मुद्गरों के रूप में परिणत हो गयी। अब वे रोष में भरकर उसी घास के द्वारा अपने विपक्षियों पर प्रकार करने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें मना किया, तो उन्होंने उनको और बलरामजी को भी अपना शत्रु समझ लिया। उन आततायियों की बुद्धि ऐसी मूढ़ हो रही थी कि वे उन्हें मारने के लिये उनकी ओर दौड़ पड़े । कुरुनन्दन! अब भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी क्रोध में भरकर युद्धभूमि में इधर-उधर विचरने और मुट्टी-की-मुट्टी एरका घास उखाड़-उखाड़ कर उन्हें मारने लगे। एरका घास की मुट्टी ही मुद्गर के समान चोट करती थी । जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न होकर दावानल बाँसों को ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रम्हशाप से ग्रस्त और भगवान् श्रीकृष्ण की माया से मोहित यदुवंशियों के स्पर्द्धामूलक क्रोध ने उनक ध्वंस कर दिया । जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि समस्त यदुवंशियों के संहार हो चुका है, तब उन्होंने यह सोचकर सन्तोष की साँस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा बार भी उतर गया । परीक्षित्! बलरामजी ने समुद्र तट पर बैठकर एकाग्र-चित्त से परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्मा को आत्मस्वरुप में ही स्थिर कर लिया और मनुष्य शरीर छोड़ दिया । जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपद में लीन हो गये, तब वे एक पीपल के पेड़ के तले जाकर चुपचाप धरती पर ही बैठ गये । भगवान् श्रीकृष्ण ने उस समय अपनी अंगकान्ति से देदीप्यमान चतुर्भुत रूप धारण कर रखा था और धूम से रहित अग्नि के समान दिशाओं को अन्धकार रहित—प्रकाशमान बना रहे थे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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