श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 29-41

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एकादश स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः (30)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद


वर्षा कालीन मेघ के समान साँवले शरीर से तपे हुए सोने के समान ज्योति निकल रही थी। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बर की धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मंगलमय रूप था । मुखकमल पर सुन्दर मुसकान और कपोलों पर नीली-नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं। कमल के समान सुन्दर-सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे । कमर में करधनी, कंधे पर यज्ञोपवीत, माथे पर मुकुट, कलाइयों में कंगन, बाँहों में बाजूबंद, वक्षःस्थल पर हार, चरणों में नूपुर, अँगुलियों में अँगूठियाँ और गले में कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी । घुटनों तक वनमाला लटकी हुई थी। शंख, चक्र, गदा आदि आयुध मुर्तिमान् होकर प्रभु की सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान् अपनी दाहिनी जाँघ पर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे, लाल-लाल तलवा रक्त कमल के समान चमक रहा था । परीक्षित्! जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने मूसल के बचे हुए टुकड़े से अपने बाण की गाँसी बना ली थी। उसे दूर से भगवान् का लाल-लाल तलवा हरिन के मुख के समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाण से बींध दिया । जब वह पास आया, तब उसने देखा कि ‘अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।’ अब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिये डर के मारे काँपने लगा और दैत्यदलन भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों पर सिर रखकर धरती पर गिर पड़ा । उसने कहा—‘हे मधुसुदन! मैंने अनजान में यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ; परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये । सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् प्रभो! महात्मा लोग कहा करते हैं कि आपके स्मरण मात्र से मनुष्यों का अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेद की बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया । वैकुण्ठ नाथ! मैं निरपराध हरिणों को मारने वाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जाने पर मैं फिर कभी आप-जैसे महापुरुषों का ऐसा अपराध न करूँगा । भगवन्! सम्पूर्ण विद्याओं के पारदर्शी ब्रम्हाजी और उनके पुत्र रूद्र आदि भी आपकी योग माया का विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी माया से आवृत है। ऐसी अवस्था में हमारे-जैसे पापयोनि लोग उसके विषय में कह ही क्या सकते हैं ? भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—हे जरे! तू डर मत, उठ-उठ! यह तो तूने मेरे मन मन का काम किया है। जा, मेरी आज्ञा से तू उस स्वर्ग में निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानों को होती है । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छा से शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याध को यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमान पर सवार होकर स्वर्ग को चला गया । भगवान् श्रीकृष्ण का सारथि दारुक उनके स्थान का पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसी की गन्ध से युक्त वायु सूँघकर और उससे उनके होने के स्थान का अनुमान लगाकर सामने की ओर गया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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