श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 27 श्लोक 25-39

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एकादश स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः (27)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः श्लोक 25-39 का हिन्दी अनुवाद


उद्धवजी! मेरे आसन में धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियों की भावना करे। अर्थात् आसन के चारों कोनों में धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य—ये चार चारों दिशाओं में डंडे हैं; सत्व-रज-तम-रूप तीन पटरानियों की बनी हुई पीठ है; उस पर विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योग, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं। उस आसन पर एक अष्टदल कमल है, उसकी कर्णिका अत्यन्त प्रकाशमान है और पीली-पीली केसरों की छटा निराली ही है। आसन के सम्बन्ध में ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे। तदनन्तर भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये वैदिक और तान्त्रिक विधि से मेरी पूजा करे । सुदर्शनचक्र, पाञ्च्जन्य शंख, कौमोद की गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल—इन आठ आयुधों की पुजा आठ दिशाओं में करे और कौस्तुभमणि, वैजयन्ती-माला तथा श्रीवत्स चिन्ह की वक्षःस्थल पर यथास्थान पूजा करे । नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण—इन आठ पार्षदों की आठ दिशाओं में; गरुड़ की सामने; दुर्गा, विनायक, व्यास और विश्वक्सेन की चारों कोनों में स्थापना करके पूजन करे। बायीं ओर गुरु की और यथाक्रम पुर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि आठ लोकपालों की स्थापना करके प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रम से उनकी पूजा करनी चाहिये । प्रिय उद्धव! यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओं द्वारा सुवासित जल से मुझे स्नान कराये और उस समय ‘सुवर्ण घर्म’ इत्यादि स्वर्णघर्मानुवाक, ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्त्रशीर्षा पुरुषः’ इत्यादि पुरुष सूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि साम-गायन का पाठ भी करता रहे । मेरा भक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध और चन्दनादि से प्रेमपूर्वक यथावात् मेरा श्रृंगार करे । उपासक श्रद्धा के साथ मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि सामग्रियाँ समर्पित करे । यदि हो सके तो गुड़, खीर, घृत, पुड़ी, हुए, लड्डू, हलुआ, दही और डाल आदि विविध व्यंजनों का नैवेद्य लगावे । भगवान् के विग्रह को दतुअन कराये, उबटन लगाये, पञ्चामृत आदि से स्नान कराये, सुगन्धित पदार्थों का लेप करे, दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वों के अवसर पर नाचने-गाने आदि का भी प्रबन्ध करे । उद्धवजी! तदनन्तर पूजा के बाद शास्त्रोक्त विधि से बने हुए कुण्ड में अग्नि की स्थापना करे। वह कुण्ड मेखला, गर्त और वेदी से शोभायमान हो। उसमें हाथ की हवा से अग्नि प्रज्वलित करके उसका परिसमूहन करे, अर्थात् उसे एकत्र कर दे । वेदी के चारों ओर कुशकण्डिका करके अर्थात् चारों ओर बीस-बीस कुश बिछाकर मन्त्र पढता हुआ उन पर जल छिड़के। इसके बाद विधिपूर्वक समिधाओं का आधानरूप अन्त्राधान कर्म करके अग्नि के उत्तर भाग में होमोपयोगी सामग्री रखे और प्रोक्षणी पात्र के जल से प्रोक्षण करे। तदनन्तर अग्नि में मेरा इस प्रकार ध्यान करे । ‘मेरी मूर्ति तपाये हुए सोने के समान दम-दम दमक रही है। रोम-रोम से शान्ति की वर्षा हो रही है। लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान हैं। उनमें शंख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं। कमल की केसर के समान पीला-पीला वस्त्र फहरा रहा है । सिर पर मुकुट, कलाइयों में कंगन, कमर में करधनी और बाँहों में बाजूबंद झिलमिला रहे हैं। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है। गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही है। घुटनों तक वनमाला लटक रही है’ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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