श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 10-24

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एकादश स्कन्ध : एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 10-24 का हिन्दी अनुवाद


मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानों में निवास करते हों, उन्हीं में रहे और देवता, असुर अथवा मनुष्यों में जो मेरे अनन्य भक्त हों, उनके आचरणों का अनुसरण करे । पर्व के अवसरों पर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजोचित ठाट-बाट से मेरी यात्रा आदि के महोत्सव करे । शुद्धान्तःकरण पुरुष आकाश के समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरण शून्य मुझ परमात्मा को ही समस्त प्राणियों और अपने ह्रदय में स्थित देखे । निर्मलबुद्धि उद्धवजी! जो साधक केवल इस ज्ञान-दृष्टि का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थों में मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राम्हण और चाण्डाल, चोर और ब्राम्हण भक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूर में समान दृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये । जब निरन्तर सभी नर-रानियों में मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनों में साधक के चित्त से स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं । अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; ‘मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देहदृष्टि को और लोक-लज्जा को छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधे को भी पृथ्वी पर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करे । जब तक समस्त प्राणियों में मेरी भावना-भगवद्भावना न होने लगे, तब तक इस प्रकार से मन, वाणी और शरीर के सभी संकल्पों और कर्मों द्वारा मेरी उपासना करता रहे । उद्धवजी! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि-ब्रम्हबुद्धि का अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रम्हस्वरुप दीखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जाने पर सारे संशय-सन्देह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार करके संसार दृष्टि से उपराम हो जाता है । मेरी प्राप्ति के जीतने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ सदाहं यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थों में मन, वाणी और शरीर की समस्त वृत्तियों से मेरी ही भावना की जाय । उद्धवजी! यही मेरा अपना भागवत धर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देने के बाद फिर किसी प्रकार की विघ्न-बाधा से इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होने के कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है । भागवत धर्म में किसी प्रकार की त्रुटि पड़नी तो दूर रही—यदि इस धर्म का साधन भय-शोक आदि के अवसर पर होने वाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नता के कारण धर्म बन जाते हैं । विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्व को प्राप्त कर लें । उद्धवजी! यह सम्पूर्ण ब्रम्हविद्या का रहस्य मैंने संक्षेप और विस्तार से तुम्हें सुना दिया। इस रहस्य को समझना मनुष्यों की तो कौन कहे, देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन है । मैंने जिस सुस्पष्ट और युक्ति युक्त ज्ञान का वर्णन बार-बार किया है, उसके मर्म को जो समझ लेता है, उसके ह्रदय की संशय-ग्रंथियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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