श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 25-38

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एकादश स्कन्ध : एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 25-38 का हिन्दी अनुवाद


मैंने तुम्हारे प्रश्न का भलीभाँति खुलासा कर दिया; जो पुरुष हमारे प्रश्नोत्तर को विचार पूर्वक धारण करेगा, वह वेदों के भी परम रहस्य सनातन परब्रम्ह को प्राप्त कर लेगा । जो पुरुष मेरे भक्तों को इसे भलीभाँति स्पष्ट करके समझायेगा, उस ज्ञान दाता को मैं प्रसन्न मन से अपना स्वरुप तक दे डालूँगा, उसे आत्मज्ञान करा दूँगा । उद्धवजी! यह तुम्हारा और मेरा संवाद स्वयं तो पवित्र है ही, दूसरों को भी पवित्र करने वाला है। जो प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और दूसरों को सुनायेगा, वह इस ज्ञान दीप के द्वारा दूसरों को मेरा दर्शन कराने के कारण पवित्र हो जायगा । जो कोई एकाग्र चित्त से इसे श्रद्धापूर्वक नित्य सुनेगा, उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होगी और वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा । प्रिय सखे! तुमने भलीभाँति ब्रम्हा का स्वरुप समझ लिया न ? और तुम्हारे चित्त का मोह एवं शोक तो दूर हो गया न ? तुम इसे दाम्भिक, नास्तिक, शठ, अश्रद्धालु, भक्तिहीन और उद्धत पुरुष को कभी मत देना । जो इन दोषों से रहित हो, ब्राम्हण भक्त हो, प्रेमी हो, साधुस्वभाव हो और जिसका चरित्र पवित्र हो, उसी को यह प्रसंग सुनाना चाहिये। यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे प्रति प्रेम-भक्ति रखते हों तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिये । जैसे दिव्य अमृत पान कर लेने पर कुछ भी पीना शेष नहीं रहता, वैसे ही यह जान लेने पर जिज्ञासु के लिये और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता । प्यारे उद्धव! मनुष्यों को जो ज्ञान, कर्म, योग, वाणिज्य और राजदण्डादि से क्रमशः मोक्ष, धर्म, काम और अर्थरूप फल प्राप्त होते हैं; परन्तु तुम्हारे-जैसे अनन्य भक्तों के लिये वह चारों प्रकार का फल केवल मैं ही हूँ । जिस समय मनुष्य समस्त कर्मों का परित्याग करके मुझे आत्मसमर्पण कर देता है, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे उसके जीवत्व से छुड़ाकर अमृतस्वरुप मोक्ष की प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरुप हो जाता है । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब उद्धवजी योग मार्ग का पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे। भगवान् श्रीकृष्ण की बात सुनकर उनकी आँखों में आँसू उमड़ आये। प्रेम की बाढ़ से गला रूँध गया, चुपचाप हाथ जोड़े रह गये और वाणी से कुछ बोला न गया । उनका चित्त प्रेमावेश से विह्वल हो रहा था, उन्होंने धैर्यपूर्वक उसे रोका और अपने को अत्यन्त सौभाग्यशाली अनुभव करते हुए सिर से यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों को स्पर्श किया तथा हाथ जोड़कर उनसे यह प्रार्थना की । उद्धवजी ने कहा—प्रभो! आप माया और ब्रम्हा आदि के भी मूल कारण हैं। मैं मोह के महान् अन्धकार में भटक रहा था। आपके सत्संग से वह सदा के लिये भाग गया। भला, जो अग्नि के पहुँच गया उसने सामने क्या शीत, अन्धकार और उसके कारण होने वाला भय ठहर सकते हैं ? भगवन्! आपकी मोहिनी माया ने मेरा ज्ञानदीपक छीन लिया था, परन्तु आपने कृपा करके वह फिर अपने सेवक को लौटा दिया। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह की वर्षा की है। ऐसा कौन होगा, जो आपके इस कृपा-प्रसाद का अनुभव करके भी आपके चरणकमलों की शरण छोड़ दे और किसी दूसरे का सहारा ले ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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