श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 39-49
एकादश स्कन्ध : एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29)
आपने अपनी माया से सृष्टि वृद्धि के लिये दशार्ह, वृष्णि, अन्धक और सात्वतवंशी यादवों के साथ मुझे सुदृढ़ स्नहे-पाश से बाँध दिया था। आज आपने आत्मबोध की तीखी तलवार से उस बन्धन को अनायास ही काट डाला । महायोगेश्वर! मेरा आपको नमस्कार है। अब आप कृपा करके मुझ शरणागत को ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे आपके चरणकमलों में मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धवजी! अब तुम मेरी आज्ञा से बदरीवन में चल जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलों के धोवन गंगा-जल का स्नानपान के द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे । अलकनन्दा के दर्शन मात्र से तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव! तुम वहाँ वृक्षों की छाल पहनना, वन के कन्द-मूल-फल खाना आर किसी भोग की अपेक्षा न रखकर निःस्पृह-वृत्ति से अपने-आप में मस्त रहना । सर्दी-गरमी, सुख-दुःख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियों को वश में रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरुप के ज्ञान और अनुभव में डूबे रहना । मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्त में विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवत धर्म में प्रेम से रम जाना। अन्त में तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखने वाली गतियों को पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरुप में मिल जाओगे ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरुप का ज्ञान संसार के भेद भ्रम को छिन्न-भिन्न कर देता है। जब उन्होंने स्वयं उद्धवजी को ऐसा उपदेश किया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणों पर सिर रख दिया। इसमें सन्देह नहीं कि उद्धवजी संयोग-वियोग से होने वाले सुख-दुःख के जोड़े से परे थे, क्योंकि वे भगवान् के निर्द्वंद चरणों की शरण ले चुके थे; फिर भी वहाँ से चलते समय उनका चित्त प्रेमोवेश से भर गया। उन्होंने अपने नेत्रों की झरती हुई अश्रुधारा से भगवान् के चरणकमलों को भिगो दिया । परीक्षित्! भगवान् के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना सम्भव नहीं है। उन्हीं के वियोग की कल्पना से उद्धवजी कातर हो गये, उनक त्याग करने में समर्थ न हुए। बार-बार विह्वल होकर मुर्च्छित होने लगे। कुछ समय के बाद उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों की पादुकाएँ अपने सिर पर रख लीं और बार-बार भगवान् के चरणों में प्रणाम करके वहाँ से प्रस्थान किया । भगवान् के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी ह्रदय में उनकी दिव्य छवि धारण किये बदरिकाश्रम पहुँचे और वहाँ उन्होंने तमोमय जीवन व्यतीत करके जगत् के एकमात्र हितैषी भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार उनकी स्वरुपभूत परमगति प्राप्त की । भगवान् शंकर आदि योगेश्वर भी सच्चिदानन्दस्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों की सेवा किया करते हैं। उन्होंने स्वयं श्रीमुख से अपने परमप्रेमी भक्त उद्धव के लिये इस ज्ञानामृत का वितरण किया। यह ज्ञानामृत आनन्द महासागर का सार है। जो श्रद्धा के साथ इसका सेवन करता है, वह तो मुक्त हो ही जाता है, उसके संग से सारा जगत् मुक्त हो जाता है । परीक्षित्! जैसे भौर विभिन्न पुष्पों से उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही स्वयं वेदों को प्रकाशित करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने भक्तों को संसार से मुक्त करने के लिये यह ज्ञान और विज्ञान का सार निकाला है। उन्होंने जरा-रोगादि भय की निवृत्ति के लिये क्षीर-समुद्र से अमृत भी निकाला था इन्हें क्रमशः अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तों को पिलाया, वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत् के मूल कारण हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-