महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 49-69
तृतीय (3) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
आप ग्रीष्म-ऋतु में अपनी किरणों से समस्त देहधारियों से तेज और सम्पूर्ण औषधियों के रस का सार खींचकर पुनः उसे वर्षाकाल में उसे बरसा देते हैं। वर्षा ऋतु में आपकी कुछ किरणें तपती हैं, कुछ जलाती हैं कुछ मेघ बनकर गरजती हैं बिजली बनकर चमकती हैं तथा वर्षा भी करती हैं। शीत काल की वायु से पीड़ित जगत को अग्नि, कम्बल और वस्त्र भी उतना सुख नहीं देते, जितना आप की किरणें देती हैं। आप अपनी किरणों द्वारा तेरह[१] द्वीपों से युक्त सम्पूर्ण पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं व अकेले ही तीनों लोकों के हित के लिए तत्पर रहते हैं। यदि आप उदय न हों तो सारा जगता अंधा हो जाये और मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ एवं काम संबंधी कर्मों में से प्रवृत्त न हों।
गर्भाधान या अग्नि की स्थापना, पशुओं को बाँधना, इष्टि(पूजा), मन्त्र, यज्ञानुष्ठान, और तप आदि समस्त क्रियाएँ आपकी ही कृपा से ब्राह्मण, क्षत्रय और वैश्यगणों द्वारा सम्पन्न की जाती हैं। ब्रह्मजी का जो एक सहस्त्र युगों का दिन बताया गया है, कालमान के जानने वाले विद्वानों ने उसका आदि अन्त आपको बताया है। मनु और मनु पुत्रों के जगत के (ब्रह्मलोक प्राप्ति कराने वाले ) अमानव पुरुष के समस्त मनवन्तरों के तथा ईश्वरों के भी ईश्वर भी आप हैं। प्रलयकाल आने पर आप के ही क्रोध से प्रकट हुई संवर्तक नामक अग्नि तीनों लोकों को भस्म करके फिर आपस में ही स्थित हो जाती है। आपकी ही किरणों से उत्पन्न हुए रंग एरावत हाथी महामेघ और बिजलियाँ सम्पूर्ण भूतों का संहार करती हैं। फिर आप ही अपने को महामेघ और बिजली रूप में सम्पूर्ण भूतों का संहार करते हुए एकार्णव के समस्त जल को सोख लेते हैं। आपको ही इन्द्र कहते हैं। आप ही रूद्र, आप ही विष्णु और आप ही प्रजापति हैं। अग्नि, सूक्ष्म मन, प्रभु, तथा सनातन ब्रह्म भी आप ही हैं।
आप ही हंस (शुद्ध स्वरूप), सविता (जगत की उत्पत्ति करने वाले), भानु (प्रकाशमान), अंशुमाली (किरण समूह से सुशोभित), वृषाकपि (धर्मरक्षक), विवस्वान् (सर्वव्यापी), मिहिर (जल की वृष्टि करने वाले ), पुषा (पषक), मित्र (सब के सुह्रद्) , धर्म ( धारण करने वाले ), सहस्त्ररश्मि (हजारों किरणों वाले), आदित्य (अदिति पुत्र), तपन (तापकारी), गवाम्पति (किरणें के स्वामी ), मर्तण्ड, अर्क (अर्चनीय), रवि, सूर्य (उत्पादक), शरणय (शरणागति की रक्षा करने वाले), दिनकृत् (दिन के कर्ता), दिवाकर (दिन को प्रकट करने वाले), सप्तसप्ति (सात घोड़ो वाले ), धामकेशी (ज्योर्तिमयी किरणों वाले), विरोचन (देदीप्यमान), आशुगामी (शीघ्रगामी) तमोघ्न (अन्धकार नाशक) तथा हरिताश्व (हरे रंग के घोड़ो वाले ) कहे जाते हैं। जो सप्तमी अथवा अष्टमी को खेद अहंकार भक्तिभाव से आपकी पूजा करता है उस मनुष्य को लक्ष्मी प्राप्त होती है। भगवन ! जो अनन्य चित्त से आपकी अर्चना और वन्दना करते हैं, उन पर कभी आपत्ति नहीं आती। वे मानसिक चिंताओं तथा रोगों से भी ग्रस्त नहीं होते हैं। जो प्रेमपूर्वक आपके प्रति भक्ति रखते हैं वे समस्त रोगों तथा पापों से रहित हो चिरंजीव एवं सुखी होते हैं। अन्नपते ! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करने की इच्छा से अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ। आप मुझे अन्न देने की कृपा करें।आपके चरणों के निेकट रहने वाले जो माठर, अरुण तथा दण्ड आादि अनुचर (गण)हैं, वे विद्युत के प्रवर्तक हैं। मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ। क्षुभा साथ जो मैत्रीभाव से तथा गौरी-पह्मा आदि अन्य भूताएँ हैं, उन सब को नमस्कार करता हूँ। वे मेरी व सभी शरणागत की रक्षा करें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जम्बू,प्लक्ष, शाल्मलि, कुशल,कुश,क्रौन्च,शाक और पुष्कर- ये सात प्रधान द्वीप माने गये हैं। इनके सिवा, कई उपद्वीप ऐसे हैं, जिनको लेकर यहाँ 13 द्वीप बनाये गये हैं।
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