सैंतालीसवाँ अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: सैंतालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद
ब्राहामण आदि वर्णों की दया भाग-विधि का वर्णन।
युधिष्ठिर ने पूछा- संपूर्ण शास्त्रों के विधान के ज्ञाता तथा राजधर्म के विद्वानों में श्रेष्ठ पितामह। आप इस भूमण्डल में सम्पूर्ण संशयों का सर्वथा निवारण करने के लिये प्रसिद्ध हैं। मेरे हदय में एक संशय और है, उसका मेरे लिये समाधान कीजिये। राजन! इस उत्पन्न हुए संशय के विषय में मैं दूसरे किसी से नहीं पूछूँगा। महाबाहो! धर्म मार्ग का अनुसरण करने वाले मनुष्य का इस विषय में जैसा कर्तव्य हो, इस सबकी आप स्पष्टरूप से व्याख्या करें। पितामह! ब्राहामण के लिये चार स्त्रियाँ शास्त्र–विहित हैं- ब्राहाणी, क्षत्रिया, वैश्या और शुद्रा। इनमें से शुद्रा केवल रति की इच्छा वाले कामी पुरुष के लिये विहित है। कुरुश्रेष्ठ! किस पुत्र को पिता के धन में से कौन-सा भाग मिलना चाहिये? उनके लिये जो भाग नियत किया गया है, उसका वर्णन मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ। भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! ब्राहामण, क्षत्रिय और वैश्य-ये तीनों वर्ण द्विजाति कहलाते हैं, अत: इन तीन वर्णों में ही ब्राहामण का विवाह धर्मत: विहित है। परंतप नरेश! अन्याय से, लोभ से अथवा कामना से शूद्र जाति की कन्या भी ब्राहामण की भार्या हेाती है, परंतु शास्त्रों में इसका कहीं विधान नहीं मिलता है। शूद्र जाति की स्त्री को अपनी शय्या पर सुलाकर ब्राहामण अधोगति को प्राप्त होता है। साथ ही शास्त्रीय विधि के अनुसार वह प्रायश्चित का भागी होता है। युधिष्ठिर! शूद्रा के गर्भ से संतान उत्पन्न करने पर ब्राहामण को दूना पाप लगता है और उसे दूने प्रायश्चित का भागी होना पड़ता है। भरतनन्दन! अब मैं ब्राहामण आदि वर्णों की कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न होने वाले पुत्रों को पैतृक धन का जो भाग प्राप्त होता है, उसका वर्णन करूँगा। ब्राहामण की ब्राहाणी पत्नी से जो पुत्र उत्पन्न होता है,वह उतम लक्षणोंसे सम्पन्न गृह आदि, बैल, सवारी तथा अन्य जो-जो श्रेष्ठतम पदार्थ हों, उन सबको अर्थात पैतृक धन के प्रधान अंश को पहले ही अपने अधिकार में कर ले। युधिष्ठिर! फिर ब्राहामण का जो शेष धन हो,उसके दस भाग करने चाहिये। पिता के उस धन में से पुन: चार भाग ब्राहामणी के पुत्र को ही ले लेने चाहिये। क्षत्रिया का जो पुत्र है, वह भी ब्राहामण ही होता है- इसमें संशय नही है। वह माता की विशिष्टता के कारण पैतृक धन के तीन भाग ले लेने का अधिकारी है। युधिष्ठिर! तीसरे वर्ण की कन्या वैश्या में जो ब्राहामण से पुत्र उत्पन्न होता है,उसे ब्राहामण के धन में से दो भाग लेने चाहिये। भारत! ब्राहामण में शूद्रा में जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे तो धन न देने का ही विधान है तो भी शूद्र के पुत्र को पैतृक धन का स्वल्पतम भाग –एक अंश दे देना चाहिये। भारत ! ब्राहामण से शूद्रा में जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे तो धन न देने का ही विधान है तो भी शूद्र के पुत्र को पैतृक धन का स्वल्पतम भाग-एक अंश दे देना चाहिये। दस भागों में विभक्त हुए बँटवारे का यही क्रम होता है। परंतु जो समान वर्ण की स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्र हैं, उन सबके लिये बराबर भागों की कल्पना करनी चाहिये। ब्राहामण से शूद्रा के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राहामण नहीं मानते हैं; क्योंकि उसमें ब्राहामणों- चित निपुणता नहीं पायी जाती। शेष तीन वर्ण की स्त्रियों से ब्राहामण द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह ब्राहामण होता है। चार ही वर्ण बताये हैं, पॉंचवाँ वर्ण नहीं मिलता। शुद्रा का पुत्र ब्राहामण पिता के धन से उसका दसवाँ भाग ले सकता है। वह भी पिता के देने पर ही उसे लेना चाहिये, बिना दिये उसे लेने का कोई अधिकार नहीं है। भरतनन्दन! किंतु शूद्रा के पुत्र को भी धन का भाग अवश्य दे देना चाहिये। दया सबसे बड़ा धर्म है। यह समझकर उसे धन का भाग दिया जाता है। दया जहाँ भी उत्पन्न हो, वह गुणकारक ही होती है। भारत! ब्राहामण के अन्य वर्ण की स्त्रियों से पुत्र हो या न हो, वह शूद्रा के पुत्र को दसवें भाग से अधिक धन न दें। जब ब्राहामण के पास तीन वर्ष तक निर्वाह होने से अधिक धन एकत्र हो जाये तब वह धन से यज्ञ करे। धन का व्यर्थ संग्रह न करे। स्त्री को पति के धन से जो हिस्सा मिलता है, उसका उपभोग ही (उसके लिये) फल माना गया है। पति के द्वारा दिये हुए स्त्री धन से पुत्र आदि को कुछ नहीं लेना चाहिये। युधिष्ठिर! ब्राहामणी को पिता की ओर से जो धन मिला हो, उस धन को उसकी पुत्री ले सकती है; क्योंकि जैसा पुत्र है, वैसी ही पुत्री भी है। कुरुनन्दन! भरतकुलभूषण नरेश! पुत्री पुत्र के समान ही है-ऐसा शास्त्र का विधान है। इस प्रकार वही धन के विभाजन की धर्मयुक्त प्रणाली बतायी गयी है। इस तरह धर्म का चिन्तन एवं अनुस्मरण करते हुए ही धन का उपार्जन एवं संग्रह करें। परंतु उसे व्यर्थ न होने दें-यज्ञ-यागादि के द्वारा सफल कर लें। युधिष्ठिर ने पूछा-दादाजी! यदि ब्राहामण से शूद्रा में उत्पन्न हुए पुत्र को धन न देने योग्य बताया गया है तो किस विशेषता के कारण उसको पैतृक धन का दसवाँ भाग भी दिया जाता है? ब्राहामण से ब्राहामणी में उत्पन्न हुआ पुत्र ब्राहामण हो-इसमें कोई संशय ही नहीं, वैसे ही क्षत्रिया और वैश्या के गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र भी ब्राहामण ही होते हैं। नृपश्रेष्ठ! जब आपने ब्राहामण आदि तीनों वर्णों वाली स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्रों को ब्राहामण ही बताया है, तब वे पैतृक धन का समान भाग क्यों नही पाते हैं? क्यों वे विषम भाग ग्रहण करें? भीष्म जी ने कहा-शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! लोक में सब स्त्रियों का ‘दारा’ इस एक नाम से ही परिचय दिया जाता है। इस तथाकथित नाम से ही चारों वर्णों की स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्रों में महान अन्तर हो जाता है[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ *’दार’ शब्द की व्युत्पति इस प्रकार है-‘आद्रियन्ते त्रिवर्गार्थिभि: इति दारा’।धर्म, अर्थ और काम की इच्छा रखने वाले पुरुषों द्वारा आदर किया जाता है, वे दारा हैं, वे दारा हैं। जहाँ तक भोग विषयक आदर है,वह तो सभी स्त्रियों के साथ समान है, परंतु व्यवहारिक जगत में जो पति के द्वारा आदर प्राप्त होता है,वह वर्णक्रम से यथायोग्य न्यूनाधिक मात्रा में ही उपलब्ध होता है। यही बात उनके पुत्रों के सम्बन्ध में भी लागू होती है।इसीलिये उनके पुत्रों को पैतृक धन के विषय में कम और अधिक भाग ग्रहण करनेका अधिकार है।
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