नवतितम (90) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
- श्रीकृष्ण का कुंती के समीप जाना एवं युधिष्ठिर का कुशल समाचार पूछकर अपने दुःखों का स्मरण करके विलाप करती हुई कुंती को आश्वासन देना
वैशम्पायनजी कहते हैं – राजन ! शत्रुदमन श्रीकृष्ण विदुरजी से मिलने के पश्चात तीसरे पहर में अपनी बुआ कुंतीदेवी के पास गए। निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी श्रीकृष्ण को आते देख कुंती देवी उनके गले लग गयी और अपने पुत्रों को याद करके फूट-फूटकर रोने लगीं। अपने उन शक्तिशाली पुत्रों के बीच में रहकर उनके साथ विचारने वाले वृष्णिकुलनंदन गोविंद को दीर्घकाल के पश्चात देखकर कुंती देवी आंसुओं की वर्षा करने लगीं। उन्होंने योद्धाओं के स्वामी श्रीकृष्ण का अतिथि-सत्कार किया । जब वे आतिथ्य ग्रहण करके आसन पर विराजमान हुए, तब सूखे मुँह और अश्रुगदगद कंठ से कुंतीदेवी इस प्रकार बोलीं। 'वत्स ! मेरे पुत्र पांडव, जो बाल्यकाल से ही गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा में तत्पर रहते, परस्पर स्नेह रखते, सर्वत्र सम्मान पाते और मन में सबके प्रति समानभाव रखते थे, शत्रुओं की शठता के शिकार होकर राज्य से हाथ धो बैठे और जनसमुदाय में रहने योग्य होकर भी निर्जन वन में चले गए। 'मेरे बेटे हर्ष और क्रोध को जीत चुके थे । वे ब्राह्मणों का हित साधन करने वाले तथा सत्यवादी थे, तथापि (शत्रुओं के अन्याय से विवश हो) प्रियजन एवं सुखभोग से मुँह मोड़ मुझे रोटी-बिलखती छोड़कर वे वन की ओर चल दिये। 'केशव ! वन जाते समय महात्मा पांडव मेरे हृदय को जड़-मूलसहित खींचकर अपने साथ ले गए । वे वनवास के योग्य कदापि नहीं थे । फिर उन्हें यह कष्ट कैसे प्राप्त हुआ ? 'तात ! वे बचपन में ही पिता के प्यार से वंचित हो गए थे । मैंने ही सदा उनका लालन-पालन किया । मेरे पुत्र सिंह, व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए उस विशाल वन में कैसे रह रहे होंगे ? माता-पिता को न देखते हुए उन्होंने उस महान वन में किस प्रकार निवास किया होगा ? 'केशव ! बाल्यावस्था से ही पांडव शंख और दुंदुभियों की गंभीर ध्वनि से, मृदंगों के अमधुर नाद से तथा बांसुरी की सुरीली तान से जगाए जाते थे। जब वे अपनी राजधानी में ऊँची अट्टालिकाओं के भीतर रण्ड्कमृग के चर्म से बने हुए बिछौने से युक्त सुकोमल शय्याओं पर शयन करते थे, उन दिनों हाथियों के चिंघाड़ने, घोड़ों के हिनहिनाने तथा रथ के पहियों के घरघराने से उनकी निद्रा टूटती थी । शंख और भेरी की तुमुल ध्वनि तथा वेणु और वीणा के मधुर स्वरों से उन्हें जगाया जाता था । साथ ही ब्राह्मण लोग पुण्याहवाचन के पवित्र घोष से उनका समादर करते थे । वे महात्मा ब्राह्मणों के मंगलमय आशीर्वाद सुनकर उठते थे । पूजित और पूजनीय पुरुष भी उनके गुण गा-गाकर अभिनंदन किया करते थे एवं उठकर वे रत्नों, वस्त्रों एवं अलंकारों के द्वारा ब्राह्मणों की पूजा करते थे । जनार्दन ! वे ही उस पांडव उस विशाल वन में हिंसक जंतुओं के क्रूरतापूर्ण शब्द सुनकर अच्छी तरह नींद भी नहीं ले पाते रहे होंगे, यद्यपि इस दुरावस्था के योग्य वे कदापि नहीं थे। 'मधुसूदन ! जो मेरी एवं मृदंग के नाद से, शंख एवं वेणु की ध्वनि से तथा स्त्रियों के गीतों के मधुर शब्द तथा सूत, मागध एवं वंदीजनों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर जागते थे, वे ही बड़े-बड़े जंगलों में हिंसक जंतुओं के कठोर शब्द सुनकर किस प्रकार नींद तोड़ते रहे होंगे ?
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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