महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 91-104

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०९:१४, १२ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==नवतितम (90) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)== <div style="te...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

नवतितम (90) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 91-104 का हिन्दी अनुवाद

भगवान वासुदेव बोले– बुआ ! संसार में तुम जैसी सौभाग्यशालिनी नारी दूसरी कौन है ? तुम राजा शूरसेन की पुत्री हो और महाराज अजमीढ़ के कुल में ब्याह कर आई हो। तुम एक उच्च कुल की कन्या हो और दूसरे उच्च कुल में ब्याही गयी हो, मानो कमलिनी एक सरोवर से दूसरे सरोवर में आई हो । एक दिन तुम सर्वकल्याणी महारानी थीं, तुम्हारे पतिदेव ने सदा तुम्हारा विशेष सम्मान किया है । तुम वीरपत्नी, वीरजननी तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हो । महाप्राज्ञे ! तुम्हारी-जैसी विवेकशील स्त्री को सुख और दुःख चुपचाप सहने चाहिए। तुम्हारे सभी पुत्र निद्रा, तंद्रा (आलस्य), क्रोध, हर्ष, भूख-प्यास तथा सर्दी-गर्मी इन सबको जीतकर सदा विरोचित सुख का उपभोग करते हैं। तुम्हारे पुत्रों ने ग्राम्यसुख को त्याग दिया है, विरोचित सुख ही उन्हें सदा प्रिय है । वे महान उत्साही और महाबली हैं; अत: थोड़े-से ऐश्वर्य से संतुष्ट नहीं हो सकते।धीर पुरुष भोगों की अंतिम स्थिति का सेवन करते हैं । ग्राम्य विषयभोगों में आसक्त पुरुष भोगों की मध्य स्थिति का ही सेवन करते हैं । वे धीर पुरुष कर्तव्यपालन के रूप में प्राप्त बड़े से बड़े क्लेशों को सहर्ष सहन करके अंत में मनुष्यातीत भोगों में रमन करते हैं । महापुरुषों का कहना है कि अंतिम (सुख-दुःख से अतीत) स्थिति की प्राप्ति ही वास्तविक सुख है तथा सुख-दुःख के बीच की स्थिति ही दुःख है। बुआ ! द्रौपदीसहित पांडवों ने तुम्हें प्रणाम कहलाया है और अपने को सकुशल बताकर अपनी स्वस्थता भी सूचित की है। तुम शीघ्र ही देखोगी, पांडव निरोग अवस्था में तुम्हारे सामने उपस्थित हैं, उनके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो गए हैं और वे अपने शत्रुओं का संहार करके साम्राज्य-लक्ष्मी से संयुक्त हो सम्पूर्ण जगत के शासक पद पर प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार आश्वासन पाकर पुत्रों आदि से दूर पड़ी हुई कुंतीदेवी ने अज्ञानजनीत मोह का निरोध करके भगवान जनार्दन से कहा। कुंती बोली- महाबाहु मधुसूदन श्रीकृष्ण ! जो पांडवों के लिए हितकर हो तथा जैसे-जैसे कार्य करना तुम्हें उचित जान पड़े, वैसे-वैसे करो। परंतप श्रीकृष्ण ! धर्म का लोप न करते हुए, छल और कपट से दूर रहकर समायोजित कार्य करना चाहिए । मैं तुम्हारी सत्यपरायणता और कुल-मर्यादा का भी प्रभाव जानती हूँ। प्रत्येक कार्य की व्यवस्था में, मित्रों के संग्रह में तथा बुद्धि और पराक्रम में भी जो तुम्हारा अद्भुत प्रभाव है, उससे मैं परिचित हूँ । हमारे कुल में तुम्हीं धर्म हो, तुम्हीं सत्य हो, तुम्हीं महान तप हो, तुम्हीं रक्षक और तुम्हीं परब्रह्म परमात्मा हो । सब कुछ तुममें ही प्रतिष्ठित है । तुम जो कुछ कहते हो, वह सब तुम्हारे सनिधान में सत्य होकर ही रहेगा। किसी से पराजित न होनेवाले वृष्निनंदन माधव ! कौरवों के, पांडवों के तथा इस सम्पूर्ण जगत के तुम्हीं आश्रय हो । केशव ! तुम्हारा प्रभाव तथा तुम्हारा बुद्धिबल भी तुम्हारे अनुरूप ही है। वैशम्पायन जी कहते हैं – जनमजेय ! तदनंतर महाबाहु गोविंद कुंतीदेवी की परिक्रमा करके उनसे आज्ञा ले दुर्योधन के घर की ओर चल दिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में श्रीकृष्ण – कुंती- संवाद विषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख