महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 91 श्लोक 1-19

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एकनवतितम (91) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण का दुर्योधन के घर जाना एवं उसके निमंत्रण को अस्वीकार करके विदुरजी के घर पर भोजन करना

वैशम्पायन जी कहते हैं – जनमजेय ! शत्रुओं का दमन करने वाले शूरनंदन श्रीकृष्ण कुंती की परिक्रमा करके एवं उनकी आज्ञा ले दुर्योधन के घर गए । वह घर इंद्रभवन के समान उत्तम शोभा से सम्पन्न था । उसमें यथास्थान विचित्र आसान सजाकर रखे गए थे । श्रीकृष्ण ने उस गृह में प्रवेश किया। द्वारपालों ने रोक-टोक नहीं की । उस राजभवन की तीन ड्योन्धियाँ पार करके महायशस्वी श्रीकृष्ण एक ऐसे प्रासाद पर आरूढ़ हुए, जो आकाश में छाए हुए शरद-बादलों के समान श्वेत, पर्वतशिखर के समान ऊंचा तथा अपनी अद्भुत प्रभा से प्रकाशमान था। वहाँ उन्होनें सिंहासन पर बैठे हुए धृतराष्ट्र पुत्र महाबाहु दुर्योधन को देखा, जो सहस्त्रों राजाओं और कौरवों से घिरा हुआ था। दुर्योधन के पास ही दु:शासन, कर्ण तथा सुबलपुत्र शकुनि– ये भी आसनों पर बैठे थे । श्रीकृष्ण ने उनको भी देखा। दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के आते ही महायशस्वी दुर्योधन मधुसूदन का सम्मान करते हुए मंत्रियों सहित उठकर खड़ा हो गया। मंत्रियों सहित दुर्योधन से मिलकर वृष्णिकुलभूषण केशव अवस्था के अनुसार वहाँ सभी राजाओं से यथायोग्य मिले। उस राजसभा में सुंदर रत्नों से विभूषित एक सुवर्णमय पर्यड्क रखा हुआ था, जिस पर भाँति-भाँति के बिछौने बिछे हुए थे । भगवान श्रीकृष्ण उसी पर विराजमान हुए। उस समय कुरुराज ने जनार्दन की सेवा में गौ, मधुपर्क, जल, गृह तथा राज्य सब कुछ निवेदन कर दिया। उस पर्यड्क पर बैठे हुए भगवान गोविंद निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे । उस समय राजाओं सहित समस्त कौरव उनके पास आकर बैठ गए। तदनंतर राजा दुर्योधन ने विजयी वीरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण को भोजन के लिए निमंत्रित किया, परंतु केशव ने उस निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। तब कुरुराज दुर्योधन ने कर्ण से सलाह लेकर कौरवसभा में श्रीकृष्ण से पूछा । पूछते समय पहले तो उसकी वाणी में पहले तो मृदुता थी, परंतु अंत में शठता प्रकट होने लगी थी। (दुर्योधन बोला-) जनार्दन ! आपके लिए अन्न, जल, वस्त्र और शय्या आदि जो वस्तुएँ प्रस्तुत की गईं, उन्हें आपने ग्रहण क्यों नहीं किया ? आपने तो दोनों पक्षों को ही सहायता दी है, आप उभय पक्ष के हित-साधन में तत्पर हैं । माधव ! महाराज धृतराष्ट्र के आप प्रिय संबंधी भी हैं । चक्र और गदा धारण करने वाले गोविंद ! आपको धर्म और अर्थ का सम्पूर्ण रूप से यथार्थ ज्ञान भी है, फिर मेरा आतिथ्य ग्रहण न करने का क्या कारण है; यह मैं सुनना चाहता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं – राजन ! इस प्रकार पूछे जाने पर उस समय महामनस्वी कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपनी विशाल भुजा ऊपर उठाकर राजा दुर्योधन को सजल जलधर के समान गम्भीर वाणी में उत्तर देना आरंभ किया । उनका वह वचन परम उत्तम, युक्तिसंगत, दैन्यरहित प्रत्येक अक्षर की स्पष्टता से सुशोभित तथा स्थानभ्रष्टता एवं संकीर्णता आदि दोषों से रहित था। 'भारत ! ऐसा नियम है कि दूत अपना प्रयोजन सिद्ध होने पर ही भोजन और सम्मान स्वीकार करते हैं । तुम भी मेरा उद्देश्य सिद्ध हो जाने पर ही मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना'। यह सुनकर दुर्योधन ने जनार्दन से कहा- 'आपको हम लोगों के साथ ऐसा अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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