महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 100-122

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Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०९:५२, १२ जुलाई २०१५ का अवतरण
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द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 100-122 का हिन्दी अनुवाद

यह सुनकर भीमसेन ने अभिमानपूर्वक कहा--‘मैं उस राक्षस से नहीं डरता। यदि वह यहाँ आयेगा, तो मैं ही उसे मार डालूँगा।' उन दोनों की बातचीत सुनकर वह भीम रूपधारी भयंकर एवं नीच राक्षस बड़े जोर से गर्जना करता हुआ वहाँ आ पहुँचा।

राक्षस बोला- हिडिम्बे ! ‘तू किससे बात कर रही है? लाओ इसे मेरे पास। हम लोग खायेंगे। अब तुम्हें देर नहीं करनी चाहिये। मनस्विनी एवं अनिन्दिता हिडिम्बा ने स्नेहयुक्त हृदय के कारण दयावश यह क्रूरतापूर्ण संदेश भीमसेन से कहना उचित न समझा। इतने में ही वह नरभक्षी राक्षस घोर गर्जना करता हुआ बड़े वेग से भीमसेन की ओर दौड़ा। क्रोध में भरे हुए उस बलवान राक्षस ने बड़े. वेग से निकट जाकर अपने हाथ से भीमसेन का हाथ पकड़ लिया। भीमसेन के हाथ का स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान था। उनका शरीर भी वैसा सुदृढ़ था। राक्षस ने भीमसेन से भिड़कर उनके हाथ को सहसा झटक दिया। राक्षस ने भीमसेन के हाथ को अपने हाथ से पकड़ लिया; यह बात महाबाहु भीमसेन नहीं सह सके। वे वहीं कुपित हो गये। उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता भीमसेन और हिडिम्ब में इन्द्र और वृत्तासुर के समान भयानक एवं घमासान युद्व होने लगा। निष्पाप श्रीकृष्ण ! महापराक्रमी और बलवान भीमसेन ने उस राक्षस के साथ बहुत देर तक खिलवाड़ करके उसके निर्बल हो जाने पर उसे मार डाला। इस प्रकार हिडिम्ब को मारकर हिडिम्बा को आगे किये भीमसेन अपने भाइयों के साथ आगे बढ़े। उसी हिडिम्बा से घटेात्कच का जन्म हुआ। तदनन्तर सब परंतप पाण्डव अपनी माता के साथ आगे बढ़े। ब्राह्मणों से घिरे हुए ये लोग एकचक्रा नगरी की ओर चल दिये। उस यात्रा में इनके प्रिय एवं हित में लगे हुए व्यासजी ही इनके परामर्शदाता हुए। उत्तम व्रत का पालन करने वाले पाण्डव उन्हीं की सम्मति से एकचक्रापुरी में गये। वहां जाने पर भी इन्हें नरभक्षी राक्षस महाबली बाकासुर मिला। वह भी हिडिम्ब के समान भयंकर था।

योद्धाओं में श्रेष्ठ भीम उस भयंकर राक्षस को मारकर अपने सब भाइयों के साथ मेरे पिता द्रुपद की राजधानी में गये। श्रीकृष्ण ! जैसे आपने भीष्मक नन्दिनी रुक्मिणी को जीता था, उसी प्रकार मेरे पिता की राजधानी में रहते समय सव्यसाची अर्जुन ने मुझे जीता। मधुसूदन ! स्वयंवर में, जो महान कर्म दूसरों के लिये दुष्कर था, वह करके भारी युद्ध में भी अर्जुन ने मुझे जीत लिया था। परंतु आज मैं इन सबके होते हुए भी अनेक प्रकार के क्लेश भोगती और अत्यन्त दुःख में डूबी रहकर अपनी सास कुन्ती से अलग हो धौम्यजी को आगे रखकर वन में निवास करती हूँ। ये सिंह के समान पराक्रमी पाण्डव बलवीर्य में शत्रुओं से बढ़े-चढ़े हैं, इनसे सर्वथा हीन कौरव मुझे भरी सभा में कष्ट दे रहे थे, तो भी इन्होंने क्यों मेरी उपेक्षा की?

पापकर्मों में लगे हुए अत्यन्त दुर्बल, पापी शत्रुओं को दिये हुए ऐसे-ऐसे दुःख मैं सह रही हूँ और दीर्घकाल से चिन्ता की आग में जल रही हूँ। यह प्रसिद्ध है कि मैं दिव्य विधि से एक महान कुल में उत्पन्न हुई हूँ। पाण्डवों की प्यारी पत्नी और महाराज पाण्डु की पुत्रवधु हूँ। मधुसूदन श्रीकृष्ण ! मैं श्रेष्ठ और सती-साध्वी होती हुए भी इन पाँचों पाण्डवों के देखते-देखते केश पकड़कर घसीटी गयी। ऐसा कहकर मृदुभाषिणी द्रौपदी कमल कोश के समान कान्तिमान एवं कोमल हाथ से अपना मुँह ढककर फूट-फूटकर रोने लगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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