अड़तालीसवाँ अध्याय: अनुशासन पर्व (दान- धर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: अड़तालीसवाँ अध्याय: श्लोक 21-50 का हिन्दी अनुवाद
निषाद के वीर्य और मागधसैरन्ध्री के गर्भ से मदगुर जाति का पुरुष उत्पन्न होता है, जिसका दूसरा नाम दास भी है। वह नाव से अपनी जीविका चलाता है। चाण्डाल और मागधी सैरन्ध्री के संयोग से श्वपाक नाम से प्रसिद्ध अधम चाण्डाल की उत्पति होती है। वह मुर्दों की रखवाली का काम करता है। इस प्रकार मागध जाति की सैरन्ध्री स्त्री आयोगव आदि चार जातियों से समागम करके माया से जीविका चलाने वाले पूर्वोक्त चार प्रकार के क्रूर पुत्रों को उत्पन्न करती है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकार के क्रूर पुत्रों को उत्पन्न करती है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकार के पुत्र मागधी सैरन्ध्री उत्पन्न होते हैं। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकार के पुत्र मागधी सैरन्ध्री से उत्पन्न होते हैं जो उसके सजातीय अर्थात मांस, स्वादुकर,क्षौद्र और सौगन्ध- इन चार नामोंसे प्रसिद्ध होती है। आयोगव जाति की पापिष्ठा स्त्री वैदेह जाति के पुरुष से समागम करके अत्यन्त क्रुर, मायाजीवी पुत्र उत्पन्न करती है। वही निषादके संयोग से मद्रनाभ नामक जाति को जन्म देती है, जो गदहे की सवारी करने वाली होती है। वही पापिष्ठा स्त्री जब चाण्डाल से समागम करती है तब पुल्कस जाति को जन्म देती है। पुल्कस गधे,घोड़े और हाथी के मांस खाते हैं। वे मुर्दो पर चढ़े हुए कफन लेकर पहनते और फूटे बर्तन में भोजन करते हैं। इस प्रकार ये तीन नीच जाति के मनुष्य आयोगवी की संतानें हैं। निषाद जाति की स्त्री का वैदेहक जाति के पुरुष से संसर्ग हो तो क्षुद्र, अन्ध्र और कारावर नामक जाति वाले पुत्रों की उत्पति होती है। इनमें से शूद्र और अन्ध्र तो गाँव से बाहर रहते हैं और जंगली पशुओं की हिंसा करके जीविका चलाते हैं तथा कारावर मृत पशुओं के चमड़े का कारोबार करते हैं। इसलिये वह चर्मकार या चमार कहलाता है। चाण्डाल पुरुष और निषाद जाति की स्त्री के संयोग से पाण्डुसौपाक जाति का जन्म होता है। यह जाति बाँस की डलिया आदि बनाकर जीविका चलाती है। वैदेह जाति की स्त्री के साथ निषाद का सम्पर्क होने पर आहिण्डक का जन्म होता है, किंतु वही स्त्री जब चाण्डाल के साथ सम्पर्क करती है तब उससे सौपाक की उत्पति होती है। सौपाक की जीविका-वृत्ति चाण्डाल के ही तुल्य है। निषाद जाति की स्त्री में चाण्डाल के वीर्य से अन्तेवसायी का जन्म होता है।इस जाति के लोग सदा शमशान में ही रहते हैं। निषाद आदि बाह्य जाति के लोग भी उसे बहिष्कृत या अछूत समझते हैं। इस प्रकार माता-पिताके व्यतिक्रम (वर्णान्तर के संयोग)-से ये वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होती हैं। इनमें से कुछ की जातियाँ तो प्रकट होती हैं और कुछ की गुप्त। इन्हें इनके कर्मों से ही पहचानना चाहिये। शास्त्रों में चारों वर्णों के धर्मों का निश्चय किया गया है औरों का नहीं। धर्महीन वर्णसंकर जातियों में से किसी के वर्णसम्बन्धी भेद और उपभेदों की भी यहाँ कोई नियत संख्या नहीं है। जो जाति का विचार न करके स्वेच्छानुसार अन्य वर्ण की स्त्रियों के साथ समागम करते हैं तथा जो यज्ञों के अधिकार और साधु पुरुषों से बहिष्कृत हैं, ऐसे वर्णब्रह्य मनुष्यों से ही वर्णसंकर संतानें उत्पन्न होती हैं और मनुष्यों से ही अपनी रुचि के अनुकुल कार्य करके भिन्न–भिन्न प्रकार की आजीविका तथा आश्रय को अपनाती है। ऐसे लोग सदा लोहे के आभूषण पहनकर चौराहों में, मरघट में, पहाडों पर और वृक्षों के नीचे निवास करते हैं। इन्हें चाहिये कि गहने तथा अन्य उपकरणों को बनायें तथा अपने उद्योग-धन्धों से जीविका चलाते हुए प्रकट रूप से निवास करें। पुरुषसिंह! यदि ये गौ और ब्राहामणों की सहायता करें, क्रूरतापूर्ण कर्म को त्याग दें, सब पर दया करें, सत्य बोलें, दूसरों के अपराध क्षमा करें और अपने शरीर को कष्ट में डालकर भी दूसरों की रक्षा करें तो इन वर्णसंकर मनुष्यों की भी पारमार्थिक उन्नति हो सकती है-इसमें संशय नहीं है।राजन! जैसा ॠषि-मुनियों ने उपदेश किया है, उसके अनुसार बतायी हुई वर्ण एवं ब्राह्यय जाति की स्त्रियों में बुद्धिमान मनुष्य को अपने हित का भलीभाँती विचार करके ही संतान उत्पन्न करनी चाहिये, क्योंकि नीच योनि में उत्पन्न हुआ पुत्र भवसागर से पार जाने की इच्छा वाले पिता को उसी प्रकार डुबोता है, जैसे गले में बँधा हुआ पत्थर तैरने वाले मनुष्य को पानी के अतलगर्त में निमग्न कर देता है। संसार में कोई मूर्ख हो या विद्वान, काम और क्रोध के वशीभूत हुए मनुष्य को नारियाँ अवश्य ही कुमार्ग पर पहुँचा देती है। इस जगत में मनुष्यों को कलंकित कर देना नारियों का स्वभाव है, अत: विवेकी पुरुष युवती व स्त्रियों में अधिक आसक्त नही होते हैं। युधिष्ठिरने पूछा-पितामह! जो चारों वर्णों से बहिष्कृत, वर्णसंकर मनुष्य से उत्पन्न और अनार्य होकर भी ऊपर से देखने में आर्य-सा प्रतीत हो रहा हो उसे हम लोग कैसे पहचान सकते है? भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जो कलुषित योनि में उत्पन्न हुआ है, वह ऐसी नाना प्रकार की चेष्टाओं से युक्त होता है, जो सत्पुरुषों के आचार से विपरीत है; अत: उसके कर्मों से ही उसकी पहचान होती है।इसी प्रकार सज्जनोचित आचरणों से योनि की शुद्धता का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इस जगत में अनार्यता, अनाचार, क्रूरता और कर्मण्यता आदि दोष मनुष्य को कलुषित योनि से उत्पन्न (वर्णसंकर) सिद्ध करते हैं। वर्णसंकर पुरुष अपने पिता या माता के अथवा दोनो के ही स्वभाव का अनुसरण करता है। वह किसी तरह अपनी प्रकृति को छिपा नहीं सकता। जैसे बाघ अपनी चित्र-विचित्र खाल और रूप के द्वारा माता-पिता के समान ही होता है, उसी प्रकार मनुष्य भी अपनी योनि का अनुसरण करता है। यद्यपि कुल और वीर्य गुप्त रहते हैं अर्थात कौन किस कुल में और किसके वीर्य से उत्पन्न हुआ है, यह बात ऊपर से प्रकट नहीं होती है तो भी जिसका जन्म संकर-योनि से हुआ है, वह मनुष्य थोड़ा-बहुत अपने पिता के स्वभाव का आश्रय लेता ही है। जो कृत्रिम मार्ग का आश्रय लेकर श्रेष्ठ पुरुषों के अनुरूप आचरण करता है, वह सोना है या काँच-शुध्द वर्ण का है या संकर वर्ण का? इसका निश्चय करते समय उसका स्वभाव ही सब कुछ बता देता है। संसार के प्राणी नाना प्रकार के आचार-व्यवहार में लगे हुए हैं, भांति-भांति के कर्मों में तत्पर हैं; अत: आचरण के सिवा ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो जन्म के रहस्य को साफ तौर पर प्रकट कर सके।वर्णसंकर को शास्त्रीय बुद्धि प्राप्त हो जाये तो भी वह उसके शरीर को स्वभाव से नहीं हटा सकती। उत्तम, मध्यम या निकृष्ट जिस प्रकारके स्वभाव से उसके शरीर का निर्माण हुआ है, वैसा ही स्वभाव उसे आनन्ददायक जान पड़ता है।ऊंची जाति का मनुष्य भी यदि उत्तमशील अर्थात आचरण से हीन हो तो उसका सत्कार न करें और शुद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर करना चाहिये। मनुष्य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुल के द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मों द्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाश में ला देता है। इन सभी उपर बतायी हुई नीच योनियों में तथा अन्य नीच जातियों में भी विद्वान पुरुष को संतानोत्पति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्याग करना ही उचित है।
इसप्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तगर्त दान-धर्म पर्व में विवाह धर्म के प्रसंग में वर्णसंकर की उत्पत्ति का वर्णन विषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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