महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-17
चतुर्विशत्यधिकशततम (124) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
- धृतराष्ट्र के अनुरोध से भगवान श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना
धृतराष्ट्र बोले– भगवन् नारद ! आप जैसा कहते हैं, वह ठीक है । मैं भी यही चाहता हूँ, परंतु मेरा कोई वश नहीं चलता है। वैशम्पायनजी कहते हैं– जनमेजय ! नारदजी से ऐसा कहकर धृतराष्ट्र ने भगवान् श्रीक़ृष्ण से कहा– ‘केशव ! आपने मुझसे जो बात कही है, वह इहलोक और स्वर्गलोक में हितकर, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है। ‘तात जनार्द्न ! मैं अपने वश में नहीं हूँ । जो कुछ किया जा रहा है, वह मुझे प्रिय नहीं है । किन्तु क्या कहूँ ? मेरे दुरात्मा पुत्र मेरी बात नहीं मानेंगे । प्रिय श्रीक़ृष्ण ! महाबाहु पुरुषोत्तम ! शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले मेरे इस मूर्ख पुत्र दुर्योधन को आप ही समझा-बुझाकर राह पर लाने का प्रयत्न कीजिये। ‘महाबाहु हृषीकेश ! यह सत्पुरुषों की कही हुई बातें नहीं सुनता है । गांधारी, बुद्धिमान् विदुर तथा हित चाहने वाले भीष्म आदि अन्यान्य सुहृदों की भी बातें नहीं सुनता है। ‘जनार्दन ! दुरात्मा राजा दुर्योधन की बुद्धि पाप में लगी हुई है । यह पाप का ही चिंतन करने वाला, क्रूर और विवेकशून्य है । आप ही इसे समझाइए । यदि आप इसे संधि के लिए राजी कर लें तो आपके द्वारा सुहृदों का यह बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न हो जाएगा’। तब सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के तत्व को जानने वाले वृष्णिनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण अमर्षशील दुर्योधन की ओर घूमकर मधुर वाणी में उससे बोले- ‘कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन ! तुम मेरी यह बात सुनो । भारत ! मैं विशेषत: सगे-संबंधियों सहित तुम्हारे कल्याण के लिए ही तुम्हें कुछ परामर्श दे रहा हूँ। ‘तुम परम ज्ञानी महापुरुषों के कुल में उत्पन्न हुए हो । स्वयं भी शास्त्रों के ज्ञान तथा सद्व्यवहार से सम्पन्न हो । तुममें सभी उत्तम गुण विद्यमान हैं; अत: तुम्हें मेरी यह अच्छी सलाह अवश्य माननी चाहिए।‘ तात ! जिसे तुम ठीक समझते हो, ऐसा अधम कार्य तो वे लोग करते हैं, जो नीच कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा जो दुष्टचित्त, क्रूर एवं निर्लज्ज हैं। ‘भरतश्रेष्ठ ! इस जगत् में सत्पुरुषों का व्यवहार धर्म और अर्थ से युक्त देखा जाता है और दुष्टों का बर्ताव ठीक इसके विपरीत दृष्टिगोचर होता है । ‘तुम्हारे भीतर यह विपरीत वृत्ति बारंबार देखने में आती है । भारत ! इस समय तुम्हारा जो दुराग्रह है, वह अधर्ममय ही है । उसके होने का कोई समुचित कारण भी नहीं है । यह भयंकर हठ अनिष्टकारक तथा महान् प्राणनाशक है । तुम इसे सफल बना सको, यह संभव नहीं है । परंतप ! यदि तुम उस अनर्थकारी दुराग्रह को छोड़ दो तो अपने कल्याण के साथ ही भाइयों, सेवकों तथा मित्रों का भी महान् हित साधन करोगे। ‘ऐसा करने पर तुम्हें अधर्म और अपयश की प्राप्ति कराने वाले कर्म से छुटकारा मिल जाएगा । अत: भरतकुलभूषण पुरुषसिंह ! तुम ज्ञानी, परम उत्साही, शूरवीर, मनस्वी एवं अनेक शास्त्रों के ज्ञाता पांडवों के साथ संधि कर लो। ‘यही परम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्र को भी प्रिय एवं हितकर जान पड़ता है । परंतप ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण , महामती विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाहीक, अश्वत्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा अन्यान्य कुटुंबी जनों एवं मित्रों को भी यही अधिक प्रिय है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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