त्रिनवतितमोअध्याय (93) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिनवतितमोअध्याय अध्याय: श्लोक का हिन्दी अनुवाद
त्रिनवतितमोअध्याहय:
ऋषियों को नमस्काठर करके पाण्डुवों का तीर्थयात्रा के लिये विदा होना
वैशम्पाियनजी कहते हैं-राजन्! कुन्तीकपुत्र युधिष्ठ्र को तीर्थयात्रा के लिये उद्यत जान कम्य्कवन के निवासी ब्राहृाण उनके निकट आकर इस प्रकार बोले ।।१।। ‘महाराज! आप अपने भाइयों तथा महात्मार लोमश मुनि के साथ पुण्यातीर्थों में जानेवाले हैं ।।२।। ‘कुरुकुललिक पाण्डुननन्दइन! हमें भी अपने साथ ले चलें। महाराज! आपके बिना हमलोग उन तीर्थेा की यात्रा नहीं कर सकते ।।३।। ‘मनुजेश्व!र! वे सभी तीर्थ हिंसक जन्तुहओं से भरे पड़े है। दुर्गम और विषम भी हैं। थोड़े से मनुष्यु वहां यात्रा नहीं कर सकते ।।४।। ‘आपके भाई शूरवीर हैं ओर सदा श्रेष्ठ् धनुरूष धरण किये रहते हैं। आप-जैसे शूरवीरो से सुरक्षित होकर हम भी उन तीर्थों की यात्रा पूरी कर लेंगे ।।५ ।। ‘भूपाल! प्रजानाथ! आपके प्रसाद से हमलोग भी उन तीर्थ और वनों की यात्रा फल अनायास ही पा लें ।।६।। ‘नरेश्वार! आपके बल पराक्रम से सुरक्षित हो हम भी तीर्थों में स्ना न करके शुद्ध हो जायेगें और उन तीर्थों के दर्शन से हमारे सब पाप धुल जायेंगे ।।७।। ‘भूपाल! भरतनन्देन! आप भी तीर्थों में नहाकर राजा कार्तवीर्य अर्जुन,राजर्षि,अष्ट क, लोमपाद और भमण्ड्ल में सर्वत्र विदित सम्राट वीरवर भरत को मिलनेवाले दुर्लभ लोकों को अपश्यग प्राप्त् कर लेंगे ।।८-९।। ‘महीपाल! प्रभास आदि तीर्थों,महेन्द्र आदि पर्वतों, गंगाआदि नदियों तथा प्लेक्ष आदि वृक्षों का हम आपके साथ दर्शन करना चाहते हैं। जनेश्वंर! यदि आपके मन में ब्राह्माणों के प्रति कुछ प्रेम है तो आप हमारी बात शीघ्र मान लीजिए इससे आपका कल्यादण होगा ।।१०-११।। ‘महाबाहो! तपस्यार में विघ्नप डालनेवाले बहुस से राक्षस उन तीर्थों में भरे पड़े हैं, उनसे आप हमरी रक्षा करने में समर्थ हैं ।।१२।। ‘नरेश्वरर! आप पापरहित हैं, धौम्यव मुनि,परम बुद्धिमान् नारदजी तथा महातपस्वी१ देवर्षि लोमश ने जिन–जिन तीर्थों का वर्णन किया है, उन सबमें आप महर्षि लोमशजी से सुरक्षित हो हमारे साथ विधिपूर्वक भ्रमण करें ।।१३-१४।। पाण्डावश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपने वीर भ्राता भीमसेन आदि से घिरकर खड़े थे। उन ब्राह्माणों द्वारा इस प्रकार सम्माैनित होने पर उनके नेत्रों में हर्ष के आंसू भर आये। उन्हों।ने देवर्षि लोमश तथा पुरोहित धौम्यिजी की आज्ञा लेकर उन सब ऋषियों से ‘बहुत अच्छाे’ कहकर अनुरोध स्वी्कार कर लिया ।।१५-१६।। तदनन्त्र मन इन्द्रियों को वश में रखनेवाले पाण्ड१वश्रेष्ठर युधिष्ठिर ने भाइयों तथा सुन्दथर अंगो वाली द्रौपती के साथ यात्रा करने का मन ही मन निश्चवय किया ।।१७।। इतने ही में महाभाग व्यावस, पर्वत और नारद आदि मनीषीजन कामयकवन में पाण्डुषनदन युधिष्ठिर से मिलने के लिये आये। राजा युधिष्ठिर ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की। उनसे सत्काुर पाकर वे महाभग महर्षि महाराज युतधष्ठिर से इस प्रकार बोले ।।१८-१९।। ऋर्षियों ने कहा- युधिष्ठिर! भीमसेन! नकुल! और सहदेव! तुमलोग तीर्थो के प्रति मन से श्रद्धापूर्वक सरलभव रखो। मनसे शुद्धिका सम्पा दन करके शुद्धचित होकर तीर्थो में जाओं ।।२०।। ब्राह्मण लोग शरीर शुद्धि के नियम को मानुषव्रत बताते है और मन के द्वारा शुद्ध की हुइ बुद्धि को दैवव्रत कहते है ।।२१।। नेरश्वषर! यदि मन राग-द्वेष से दूषित न हो तो वह शुद्धिके लिये पर्याप्तक माना गया है। सब प्राणियों के प्रति मैत्री बुद्धि का आश्रय ले शुद्धभाव से तीर्थों का दर्शन करो ।।२२।। तुम मानसिक और शारीरिक नियमव्रतों से शुद्ध हो । दैव व्रत का आश्रय ले यात्रा करोगे तो तीर्थो का तुम्हेंप यथावत् फल प्राप्तो होगा ।।२३।। महर्षियों के ऐसा कहने पर द्रौपदीसहित पाण्डावों ने ‘बहुत अच्छा।’ कहकर(उनकी आज्ञाएं शिरोधार्य की और उनके बताये हुए नियमों का पालन करने की )प्रतिज्ञा की। तत्प श्चा।त उन दिव्यए और मानव महर्षियों ने उन सबके लिये स्ववस्तिवाचन किया ।।२४।। राजेन्द्रत! तदनन्तमर महर्षि लोमश, दैपायन व्यामस, देवर्षि नारद और पर्वत के चरणें का स्प्र्श करके वनवासी ब्राह्मणों,पुरोहित घौम्यए और लोमश आदि के साथ वीर पाण्डंव तीर्थ यात्रा के लिये निकले। मार्गशीर्ष की पूर्णिमा व्य्तीत होनेपर जब पुष्ये नक्षत्र तब उसी नक्षत्र में उन्होेने यात्रा प्रारम्भग की ।।२४-२६।। उन सबने शरीर पर फटे पुराने वस्त्रक या मृगचर्म धारण कर रखे थे। उनके मस्तरक पर जटाएं थी। उनके अंग अभेद्य कवचों से ढके हुए थे। वे सूर्यप्रदत बटलोई आदि पात्र लेकर वहां तीर्थो में विचरण करने लगे ।।२७।।
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उनके साथ इनद्रसेन आदि चौदह से अधिक सेवक रथ लिये पीछे पीछे जा रहे थे। रसोई काम में संलग्नक रहनेवाले अन्या न्य सेवक भी उनके साथ थे ।।२८।। जनमेजय! वीर पाण्डषव आवश्य।क अस्त्रक-शस्त्रकले कमर में तलवारबांधकर पीठपर तरकस कसे हुए हाथोंमें बाण लियें पूर्वदिशाककी और मुह करके वहां से प्रस्थित हुए ।।२९।।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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