महाभारत वन पर्व अध्याय 95 श्लोक 1-20

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:३८, १३ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==पअ्चनवतितमोअध्‍याय: (95) वन पर्व (अरण्यपर्व)== <div style="text-align...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पअ्चनवतितमोअध्‍याय: (95) वन पर्व (अरण्यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: पअ्चनवतितमोअध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

पाण्‍डवों का नैमिषारण्‍य आदि तीर्थों में जाकर प्रयाग तथा गयातीर्थ में जाना और गय राजा के महान् यज्ञों की महिमा सुनना वैशम्‍पायनजी कहते हैं –राजन्! इस प्रकार वे वीर पाण्‍डव विभि‍न्‍न स्‍थानों में निवास करते हुए क्रमश: नैमिषारण्‍य तीर्थ में आये । भरतनन्‍दन! नरेश्‍वर! तदनन्‍तर गोमती के पुण्‍यतीर्थों में स्‍नान करके पाण्‍डवों ने वहां गोदान और धनदान किया ।


भारत! भूपाल! वहां देवताओं, पितरों तथा ब्राह्मणों को बार-बार तृप्‍त करके कन्‍या तीर्थ,अश्‍वतीर्थ गोतीर्थ, कालकोटि तथा वृषप्रस्‍थगिरि में निवास करते हुए उन सब पाण्‍डवों ने बाहुदा नदी में स्‍नान किया। पृथ्‍वीपते! तदनन्‍तर उन्‍होंने देवताओं की यज्ञभूमि प्रयाग में पहुंचकर वहां गंगा यमुना के संगम में स्‍नान किया। सत्‍यप्रतिज्ञ पाण्‍डव वहां स्‍नान करके कुछ दिनों तक उतम तपस्‍या में लगे रहे । पापरहित महात्‍माओं ने(त्रिवेणी तट पर ) ब्राहृाणों को धन दान किया। भरतनन्‍दन! तत्‍पश्‍चात पाण्‍डव ब्राहृाणों के साथ ब्रह्माजी वेदी पर गये, जो नमस्‍वीजनों से सेवित है। वहां उन वीरों ने उतम तपस्‍या करते हुए निवास किया। वे सदा कन्‍द-मूल फल आदि वन्‍य हविष्‍यद्वारा ब्राह्माणों को तृप्‍त करते रहते थे । अनुपम तेजस्‍वी जनमेजय! प्रयाग से चलकर पाडव पुयात्‍मा एवं धर्मज्ञ राजर्षि गय के द्वारा यज्ञ करके शुद्ध किये हुए उतम पर्वत से उपलक्षित गयातीर्थ में गये । जहां गयशिर नामक पव्रत और बेंत की पंक्ति से घिरी हुई रमणीय महानदी है, जो अपने दोनों तटो से विशेष शोभा पाती है । वहां महषिर्यों सेवित,पावन शिखरों वाला, दिव्‍यएवं पवित्र दूसरा पर्वत भी है, जो अत्‍यन्‍त पुण्‍यदायक तीर्थ है। वही उतम ब्रह्मासरोवर है, जहां भगवान् अगस्‍त्‍यपुति वैवस्‍वत यम से मिलने के लिये पधारे थे । क्‍योंकि सनातन धर्मराज वहां स्‍वयं निवास करते हैं। राजन्! वहां सम्‍पूर्ण नदियों का प्राकटय हुआ है । पिनाकपाणि भगवान् महादेव उस तीर्थ में नित्‍य निवास करते हैं। वहां वीर पाण्‍डवों ने उन दि‍नों चातुर्मासयव्रत ग्रहण करके महान् ऋर्षियज्ञ अर्थात् वेदादि सत् शास्‍त्रों के स्‍वाध्‍यायद्वारा भगवान् की आराधना की। वहीं महान् अक्षय वट है । देवताओं की वह यज्ञभूमि अक्षय है और वहां किये हुए प्रत्‍येक सत्‍कर्म का फल अक्षय होता है । अविचल चितवाले पाण्‍डवों ने उस तीर्थ में कई उपवास किये। उस समय वहां सैकडों तपस्‍वी ब्राह्माण पधारे । उन्‍होंने शास्‍त्रों में विधिपूर्वकचातुर्मास्‍ययज्ञकिया। वहां आये हुए ब्राह्माण विद्या और तपस्‍या में बढे़-चढ़े तथा वेदों के पारंगत विद्वानथे। उन्‍होंने परस्‍पर मिलकर सभा में बैठकर महात्‍मा पुरुषों की पवित्र कथाएं कहीं । उन में शमठ नामक एक विद्वान ब्राह्माण थे, जो विद्या अध्‍ययन का व्रत समाप्‍त करके स्‍नातक हो चुके थे। उन्‍होंने आजीवन ब्रह्मचर्य पालन का व्रत ले रखा था। राजन्! शमठ ने वहां अमूर्तरया के पुत्र महाराजगय की कथा इस प्रकार कही ।

शमठ बोले- भरतनन्‍दन युघिष्ठिर! अमूर्तरयाके पुत्र गय रार्षियों में श्रेष्‍ठ थे। उनके कर्म बडे़ ही पवित्र एवं पावन थे मैं उनका वर्णन करता हूं, सुनों । राजन्! यहां राजा गयने बड़ा भारी यज्ञ किया था। उसमें बहुत अन्‍न खर्च हुआ था और असंख्‍य दक्षिणा बांटी गयी थी। उस यज्ञ में अन्‍न के सैकडों और हजारें पर्वत लग गये थे। घी के कई सौ कुण्‍ड और दही की नदियां बहती थीं। सहस्‍त्रों प्रकार के उतमोतम व्‍यंजनों की बाढ़ सी आ गयी थी ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख