महाभारत वन पर्व अध्याय 99 श्लोक 33-52
एकोनशततमो (99) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
पहले भगवान् शंकर की जटा से गिरकर प्रवाहित होने वाली समुद्र की प्रियतमा महारानी गंगा सम्पूर्ण् दक्षिण दिशा को इस प्रकार आप्लावित कर रही है मानो माता अपनी संतान को नहला रही हो। इस परम पवित्र नदी में तुम इच्छानुसार स्नान करे । महाराज युधिष्ठिर! इधर ध्यान दो, यह महर्षिसेवित भृगुतीर्थ है, जो तीनों लोकों में विख्यात हैं । जहां परशुरामजी ने स्नान हुए तेज को पुन: प्राप्त कर लिया। पाण्डुनन्दन! तुम अपने भाइयों ओर द्रौपदी के साथ इसमें स्नान करके दुर्योधन द्वारा छीने हुए अपने तेज को पुन: प्राप्त कर सकते हो। जैसे दशरथनन्दन श्रीराम से वैर करने पर उनके द्वारा अपहृत हुए तेज को परशुराम ने यहां स्नान के प्रभाव से पुन:पा लिया था । वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ उस तीर्थ में स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण किया । नरश्रेष्ठ! उस तीर्थ में स्नान कर लेने पर राज युधिष्ठिर का रुप अत्यन्त तेजायुक्त हो प्रकाशमान हो गया। अब वे शत्रुओं के लिये परम दुर्घर्ष हो गये । राजेन्द्र! उस समय पाण्डुनन्द युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा–‘भगवन्’! परशुरामजी के तेज का अपहरण किसलिये किया गया था और प्रभो! वह इन्हें पुन: किस प्रकार प्राप्त हो गया! यह मैं जानना चाहता हॅू। आप कृपा करके इस प्रसंग का वर्णन करें । लोमशजी ने कहा–राजेन्द्र! तुम दशरथनन्दन श्रीराम तथा परम बुद्धिमान् भृगुनन्दन परशुरामजी का चरित्र सुनो। पूर्वकाल में महात्मा राजा दशरथके यहॉं साक्षत् भगवान् विष्णु अपने ही सच्चिदानन्दमय विग्रह से श्रीरामरुप में अपवीर्ण हुए थे। उनके अवतार का उद्देश्य था-पापी रावण का
विनाश। अयोध्या में प्रकट हुए दशरथनन्दन श्री रामका हम लोग प्राय: दर्शन करते रहते थे । अनायास ही महान् कर्म करनेवाले दशरथकुमार श्रीराम का भारी पराक्रम सुनकर भृगु तथा ऋचीक के वंशज रेणु का नन्दन परशुराम उन्हें देखने के लिये उत्सुक हो क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष लिये अयोध्यायमें आये । उनके शुभागमन का उद्देश्य था दशरथनन्दन श्रीराम के बल पराक्रम की परीक्षा करना। महाराज दशरथ ने जब सुना कि परशुरामजी हमारे राज्य की सीमा पर आ गये हैं, तब उन्होंने मुनि की अगवानी के लिये अपने पुत्र श्रीराम को भेजा कुन्तीनन्दन! श्रीरामचन्द्रजी धनुष-बाण हाथ में लिये आकर खड़े हैं, यह देखकर परशुरामजी ने हँसते हुए कहा-‘जानेन्द्र! प्रभो! भूपाल! यदि तुम में शक्ति हो तो यत्नपूर्वक इस धुनुषपर प्रत्यअंचा चढाओं। यह वह धनुष है, जिसके द्वारा मैंने क्षत्रियों का संहार किया हैं । उनके ऐसा कहने पर श्रीरामचन्द्र जी ने कहा,भगवन्, आपकों इस तरह आक्षेप नहीं करना चाहिए । मैं भी समस्त द्विजातियों में क्षत्रिय–धर्म का पालन करने में अधम नहीं हूँ। विशेषत: इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय अपने बाहुबल की प्रशंसा नही करते । श्रीरामचन्द्र जी के ऐसा कहने पर परशुरामजी के ऐसा कहने पर परशुरामजी बोले- ‘रघुनन्दन! बाते बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। यह धनुष लो और इस पर प्रत्यअंचा चढा़ओं । तब दशरथनन्दन श्रीरामजी ने रोषपूर्वक परशुराम का वह वीर क्षत्रियों का संहारक दिव्य धनुष उनके हाथ से ले लिया। भारत! उन्होंने लीलापूर्वक प्रत्यअंचा चढा़ दी। तत्पश्चात पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी मुस्कुराते हुए धनुष की टंकार फैलायी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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