त्रयोदशाधिकत्रिशततम (313) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रयोदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः श्लोक 98-113 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर बोले- धर्मज्ञ को पण्डित समझना चाहिये, मूर्ख नास्तिक कहलाता है और नास्तिक मूर्ख है तथा जो जन्म मरण रूप संसार का कारण है, वह वासना काम है और हृदय की जलन ही मत्सर है।
यक्ष ने पूछा- अहंकार किसे कहते हैं ? दम्भ क्या कहलाता है ? जिसे परम दैवउ कहते हैं, वह क्या है ? और पैशुन्य किसका नाम है ?
युधिष्ठिर बोले- महान् अज्ञान अहंकार है, अपने को झूठ-मूठ बड़ा धर्मात्मा प्रसिद्ध करना दम्भ है, दान का फल दैव कहलाता है और दूसरो को दोष लगाना पैशुन्य (चुगली) है।
यक्ष ने पूछा- धर्म, अर्थ और काम- ये सब परस्पर विरोधी हैं। इन नित्य -विरुद्ध पुरुषों का एक स्थान पर कैसे संयोग हो सकता है ?
युधिष्ठिर बोले- जब धर्म और भार्या- ये दोनों परस्पर अविरोधी होकर मनुष्य के वश में हो जाते हैं, उस समय धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों तीनों परस्पर विरोधियों का भी एक साथ रहना सहज हो जाता है।
यक्ष ने पूछा- भरतश्रेष्ठ ! अक्षय नरक किस पुरुष को प्राप्त होता है , मेरे इस प्रश्न का शीघ्र ही उत्तर दो।
युधिष्ठिर बोले- जो पुरुष भिक्षा माँगने वाले किसी अकिंचन ब्राह्मण को स्वयं बुलोर फिर उसे ‘नाहींद्ध कर देता है, वह अक्षय नरक में जाता है। जो पुरुष वेद, धर्मयशास्त्र, ब्राह्मण, देवता और पितृधर्मों में मिथ्याबुद्धि रखता है, वह अक्षय नरक को प्राप्त होता है।। धन पास रहते हुए भी जो लोभवश दान और भोग से रहित है तथा (माँगने वाले ब्राह्मणादि को एवं न्याययुक्त भोग के
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लिये स्त्री-पुत्रादि को ) पीछे से यह कह देता है कि मेरे पास कुछ नहीं है, वह अक्षय नरक में जाता है।
यक्ष ने पूछा- राजन् ! कुल, आचार, स्वाध्याय और शास्त्रश्रवण- इनमें से किसके द्वारा ब्राह्मणत्व सिद्ध होता है ? यह बात निश्चय करके बताओ।
युधिष्ठिर बोले- तात यक्ष ! सुनो न तो कुल ब्राह्मणत्व में कारण है न स्वाध्याय और न शास्त्रश्रवण। ब्राह्मणत्व का हेतु आचार ही है, इसमें संशय नहीं है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक सदाचार की ही रक्षा करनी चाहिये। ब्राह्मण को तो उसपर विशेषरूप से दृष्टि रखनी जरूरी है; क्योंकि जिसका सदाचार अक्षुण्ण है, उसका ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया, वह तो स्वयं भी नष्ट हो गया। पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले तथा शास्त्र का विचार करने वाले- ये सब तो व्यसनी और मूर्ख ही हैं। पण्डित तो वही है, जो अपने (शास्त्रोक्त) कर्तवय का पालन करता है। चारों वेद पढ़ा होने पर भी जो दुराचारी है, वह अधमता में शुद्र से भी बढ़कर है। जो (नित्य) अग्निहोत्र में तत्पर और जितेन्द्रिय है, वही ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है।
यक्ष ने पूछा- बताओ; मधुर वचन बोलने वाले को क्या मिलता है ? सोत्र विचारकर काम करने वाला क्या पा लेता है ? जो बहुत से मित्र बना लेता है, उसे क्या लाभ होता है ? और जो धर्मनिष्ठ है, उसे क्या मिलता है ?
युधिष्ठिर बोले- मधुर वचन बोलने वाला सबको प्रिय होता है, सोच विचार कर काम करने वाले को अणिकतर सफलता मिलती है एवं जो बहुत से मित्र बना लेता है, वह सुख से रहता है और जो धर्मनिष्ठ है, वह सद्गति पाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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