महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-23

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छब्‍बीसवां अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दान धर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: छब्‍बीसवां अध्याय: श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद

श्रीगंगाजी के माहात्म्य का वर्णन।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं-जनमेजय! जो बुद्धि में बृहस्पति के, क्षमा में ब्रह्म जी के, पराक्रम में इन्द्र के और तेज में सूर्य के समान थे, अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले वे महातेजस्वी गंगानन्दन भीष्म जी जब अर्जुन के हाथ से मारे जाकर युद्ध में वीरशय्या पर पड़े हुए काल की बाट जोह रहे थे और भाइयों तथा अन्य लोगों सहित राजा युधिष्ठिर उनसे तरह-तरह के प्रश्न कर रहे थे, उसी समय बहुत-से दिव्य महर्षि भीष्म जी को देखने के लिये आये। उनके नाम ये हैं- अत्रि, वसिष्ठ, भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, गौतम, अगस्त्य, संयतचित सुमति, विश्वामित्र, स्थूलशिरा, संवर्त, प्रमति, दम, बृहस्पति, शुक्राचार्य, व्यास, च्यवन, काश्यप, ध्रुव , दुर्वासा, जमदग्नि, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज, रैभ्य, यवक्रीत, त्रित, स्थूलाक्ष, शबलाक्ष, कण्व, मेधातिथि, कृश, नारद, पर्वत, सुधन्वा, एकत, नितम्भू, भुवन, धौम्य, शतानन्द, अकृतव्रण, जमदग्निनन्दन परशुराम और कच। ये सभी महात्मा महर्षि जब भीष्म जी को देखने के लिये वहां पधारे, तब भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने उनकी क्रमश: विधिवत पूजा की। पूजन के पश्चात वे महर्षि सुखपूर्वक बैठकर भीष्म जी से सम्बन्ध रखने वाली मधुर एवं मानोहर कथाएं कहने लगे। उनकी वे कथाएं सम्पूर्ण इन्द्रियों और मन को मोह लेती थीं। शुद्ध अन्तःकरण वाले उन ऋषि-मुनियों की बातें सुनकर भीष्म जी हुए और अपने को स्वर्गमें ही स्थित मानने लगे। तदनन्तर वे महर्षिगण भीष्म जी और पाण्डवों की अनुमति लेकर सबके देखते-देखते ही वहां से अदृश्य हो गये। उन महाभाग मुनियों के अदृश्य हो जाने पर भी समस्त पाण्डव बारंबार उनकी स्तुति और उन्हें प्रणाम करते रहे। जैसे वेदमंत्रों के ज्ञाता ब्राह्मण उगते हुए सूर्य का उपस्थान करते हैं, उसी प्रकार प्रसन्नचित हुए समस्त पाण्डव कुरुश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म को प्रणाम करने लगे। उन ऋषियों की तपस्याके प्रभाव से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित होती देख पाण्डवों को बड़ा विस्मय हुआ। उन महर्षियों के महान सौभाग्य का चिन्तन करके पाण्डव भीष्म जी के साथ उन्हीं के सम्बन्ध में बातें करने लगे। वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय! बातचीत के अन्त में भीष्म के चरणों में सिर रखकर धर्मपुत्र पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर यह धर्मानुकूल प्रश्न पूछा-युधिष्ठिर बोले- पितामह! कौन से देश, कौन से प्रान्त, कौन-कौन आश्रम, कौन से पर्वत और कौन-कौन-सी नदियां पुण्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ समझने योग्य हैं ? भीष्म जी ने कहा-युधिष्ठिर! इस विषय में शिलोअछवृत्ति से जीविका चलाने वाले एक पुरुष का किसी सिद्ध पुरुष के साथ जो संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास सुनो। मनुष्यों में श्रेष्ठ कोई सिद्ध पुरुष शैलमालाओं से अलंकृत इस समूची पृथ्वी की अनेक बार परिक्रमा करने के पश्चात शिलोंछवृत्ति से जीविका चलाने वाले एक श्रेष्ठ गृहस्थ के घर गया। उस गृहस्थ ने उसकी विधिपूर्वक पूजा की। वह समागत ऋषि वहां बड़े सुख से रातभर रहा। उसके मुखपर प्रसन्नता छा रही थी। सवेरा होने पर वह शिलवृत्ति वाला गृहस्थ स्नान आदि से पवित्र होकर प्रातःकालीन नित्यकर्म में लग गया। नित्यकर्म पूर्ण करके वह उस सिद्ध अतिथि की सेवा में उपस्थित हुआ। इसी बीच में अतिथि ने भी प्रातःकाल के स्नान-पूजन आदि आवश्यक कृत्य पूर्ण कर लिये थे। वे दोनों महात्मा एक-दूसरे से मिलकर सुखपूर्वक बैठे तथा वेदों से सम्बन्ध और वेदान्त से उपलक्षित शुभ चर्चाएं करने लगे। बातचीत पूरी होने पर शिलोंछवृति वाले बुद्धिमान गृहस्थ ब्राह्मण ने सिद्ध को सम्बोधित करके यत्नपूर्वक वही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो। शिलवृति वाले ब्राह्मण ने पूछा-ब्रह्मन! कौन-से देश, कौन-से जनपद, कौन-कौन आश्रम, कौन-से पर्वत और कौन-कौन-सी नदियां पुण्यकी दृष्टिसे सर्वश्रेष्ठ समझने योग्य हैं? यह बतानेकी कृपा करें। सिद्ध ने कहा- ब्रह्मन! वे ही देश, जनपद, आश्रम और पर्वत पुण्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनके बीच से होकर सरिताओं में उत्‍तम भागीरथी गंगा बहती है।।26।। गंगा जी का सेवन करने से जीव जिस उत्‍तम गति को प्राप्त करता है उसे वह तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, अथवा त्याग से भी नहीं पा सकता। जिन देहधारियों के शरीर गंगा जी के जल से भीगते हैं अथवा मरने पर जिनकी हड्डियां गंगा जी में डाली जाती हैं वे कभी स्वर्ग से नीचे नहीं गिरते। विप्रवर! जिन देहधारियों के सम्पूर्ण कार्य गंगाजल से ही सम्पन्न होते हैं वे मानव मरने के बाद पृथ्वी का निवास छोड़कर स्वर्ग में विराजमान होते हैं। जो मनुष्य जीवन की पहली अवस्था में पापकर्म करके भी पीछे गंगा जी का सेवन करने लगते हैं वे भी उत्‍तम गति को ही प्राप्त होते हैं। गंगा जी के पवित्र जल से स्नान करके जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है उन पुरुषों के पुण्य की जैसी वृद्धि होती है; वैसी सैकड़ों यज्ञ करने से भी नहीं हो सकती। मनुष्य की हड्डी जितने समय तक गंगा जी के जल में पड़ी रहती है, उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जैसे सूर्य उदयकालमें घने अन्धकार को विदीर्ण करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार गंगा जल में स्नान करने वाला पुरुष अपने पापों को नष्ट करके सुशोभित होता है। जैसे बिना चांदनी की रात और बिना फूलों के वृक्ष शोभा नहीं पाते, उसी प्रकार गंगा जी के कल्याणमय जलसे वंचित हुए देश और दिशाएं भी शोभा एवं सौभाग्य हीन हैं। जैसे धर्म और ज्ञान से रहित होने पर सम्पूर्ण वर्णों और आश्रमों की शोभा नहीं होती है तथा जैसे सोमरस के बिना यज्ञ सुशोभित नहीं होते, उसी प्रकार गंगा के बिना जगत की शोभा नहीं है। जैसे सूर्य के बिना आकाश, पर्वतों के बिना पृथ्वी और वायु के बिना अन्तरिक्ष की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार जो देश और दिशाएं गंगा जी से रहित हैं उनकी भी शोभा नहीं होती-इसमें संशय नहीं है। तीनों लोकों में जो कोई भी प्राणी हैं, उन सबको गंगा जी के शुभ जल से तर्पण करने पर वे सब परम तृप्ति लाभ करते हैं। जो मनुष्य सूर्य की किरणों से तपे हुए गंगाजल का पान करता है, उसका वह जलपान गाय के गोबर से निकले हुए जौ की लप्सी खाने से अधिक पवित्रकारक है। जो शरीर को शुद्ध करने वाले एक सहस्त्र चान्द्रायण व्रतों का अनुष्ठान करता है और जो केवल गंगाजल पीता है, वे दोनों समान ही हैं अथवा यह भी हो सकता है कि दोनों समान न हों (गंगाजल पीनेवाला बढ़ जाये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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