महाभारत वन पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-20
चतुर्विंश अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
पाण्डवों का द्वैत वन में जाना।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्तर प्रजाजनों के चले जाने पर सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्मात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों से कहा- ‘हम लोगों को इन आगामी बारह वर्षों तक निर्जन वन में निवास करना है, अतः इस महान वन में कोई ऐसा स्थान ढूढों, जहाँ बहुत से पशु- पक्षी निवास करते हों।' ‘जहाँ फल-फूलों की अधिकता हो, जो देखने में रमणीय एवं कल्याणकारी हो तथा जहाँ बहुत-से पुण्यात्मा पुरुष रहते हों। वह स्थान इस योग्य होना चाहिये, जहाँ हम सब लोग इन बारह वर्षों तक सुखपूर्वक रह सकें।' धर्मराज के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उन मनस्वी, मानगुरु युधिष्ठिर का गुरुतुल्य सम्मान करके उनसे इस प्रकार कहा। अर्जुन बोले- आर्य ! आप स्वयं ही बड़े-बड़े ऋषियों तथा पुरुषों का संग करने वाले हैं। इस मनुष्य लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो। भरतश्रेष्ठ ! आपने सदा द्वैपायन आदि बहुत से ब्राह्मणों तथा महातपस्वी नारदजी की उपासना की है। जो मन और इन्द्रियों को वश में रखकर सदा सम्पूर्ण लोकों में विचरित रहते हैं। देवलोक से लेकर ब्रह्मलोक तथा गन्धर्वों और अप्सराओं के लोकों में भी उनकी पहुँच है। राजन ! आप सभी ब्राह्मणों के अनुभाव और प्रभाव को जानते हैं, इसमें संशय नहीं है। राजन ! आप ही श्रेय ( मोक्ष ) के कारण का ज्ञान रखते हैं। महाराज ! आपकी जहाँ इच्छा हो वहीं हम लोग निवास करेंगे। यह जो पवित्र जल से भरा हुआ सरोवर है, इसका नाम द्वैतवन है। यहाँ फल- फूलों की बहुलता है। देखने में यह रमणीय तथा अनेक ब्राह्मणों से सेवित है। मेरी इच्छा है कि वहीं हम लोग इन बारह वर्षों तक निवास करें। राजन ! यदि आपकी अनुमति हो तो द्वैतवन के समीप रहा जाये। अथवा आप दूसरे किस स्थान को उत्तम मानते हैं।
युधिष्ठिर ने कहा- पार्थ तुमने जैसा बताया है, वही मेरा भी मत है। हम लोग पवि़त्र जल के कारण प्रसिद्ध द्वैतवन नामक विशाल सरोवर के समीप चलें।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर वे सभी धर्मात्मा पाण्डव बहुत-से ब्राह्मणों के साथ पवित्र द्वैतवन नामक सरोवर को चले गये। वहाँ बहुत-से अग्निहोत्री ब्राह्मणों, निरग्निकों, स्वाध्याय परायण ब्रह्मचारियों, वानप्रस्थियों, सन्यासियों, सैकड़ों कठोर व्रत का पालन करने वाले तपःसिद्ध महात्माओं तथा अन्य अनेक ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को घेर लिया। वहाँ पहुँचकर भरतश्रेष्ठ पाण्डवों ने बहुत-से ब्राह्मणों के साथ पवित्र एवं रमणीय द्वैतवन में प्रवेश किया। राष्ट्रपति युधिष्ठिर ने देखा, वह महान वन तमाल, ताल, आम, महुआ, नीप, कदम्ब, साल, अर्जुन, और कनेर आदि वृक्षों से, जो ग्रीष्म ऋतु बीतने पर फूल धारण करते हैं, सम्पन्न है। उस वन में बड़े-बड़े वृक्षों की ऊँची शाखाओं पर मयूर, चातक चोर, बर्हिण तथा कोकिल आदि पक्षी मन को भाने वाली मीठी बोली बोलते हुए बैठे थे। राष्ट्रपति युधिष्ठिर को उस वन में पर्वतों के समान प्रतीत होने वाले मन्दोन्मत्त गजराजों के, जो एक-एक यूथ के अधिपति थे, हाथियों के साथ विचरने वाले कितने ही भारी-भारी झुंड दिखायी दिये। मनोरम भगवती ( सरस्वती ) नदी में स्नान करके जिनके अन्तःकरण पवित्र हो गये हैं, जो और जटा धारण करते हैं, ऐसे धर्मात्माओं के निवासभूत उस वन में राजा ने सिद्ध-महर्षियों के अनेक समुदाय देखे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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