महाभारत वन पर्व अध्याय 296 श्लोक 1-18
षण्णवत्यधिकद्विशततम (296) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)
सावित्री की व्रतसचर्या तथा सास-ससुर और पति की आज्ञा लेकर सत्यवान के साथ उसका वन में जाना
मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! तदनन्तर बहुत दिन बीत जाने पर एक दिन वह समय भी आ पहुँचा जब कि सत्यवान् की मृत्यु होने वाली थी। सावित्री एक-एक दिन बीतने पर उसकी गणना करती रहती थी। नारदजी ने जो बात कही थी, वह उसके हृदय में सदा विद्यमान रहती थी। भाविनी सावित्री को जब यह निश्चय हो गया कि मेरे पति को आज से चैथे दिन मरना है, तब उसने तीन रात का व्रत धारण किया और उसमें दिन-रात खड़ी ही रही। सावित्री का यह कठोर नियम सुनकर राजा द्युमत्सेन को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने उठकर सावित्री को सान्त्वना देते हुए कहा। द्युमत्सेन बोले- राजकुमारी ! तुमने यह बड़ा कठोर व्रत आरम्भ किया है। तीन दिनों तक निराहार रहना तो अत्यन्त दुष्कर कार्य है। सावित्री बोली- पिताजी ! आप विन्ता न करें। मैं इस व्रत को पूर्ण कर लूँगी। दृढ़ निश्चय ही व्रत के निर्वाह में कारण हुआ करता है, सो मेंने दृढ़ निश्चय से ही इस व्रत को आरम्भ किया है। द्युमत्सेन ने कहा- यह तो मैं तुम्हें किसी तरह नहीं कह सकता कि ‘बेटी ! तुम व्रत भंग कर दो।’ मेरे जैसा मनुष्य यही समुचित बात कह सकता है कि ‘तुम व्रत को निर्विघ्न पूर्ण करो’। मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! उेसा कहकर महामना द्युमत्सेन चुप हो गये। सावित्री एक स्थान पर खड़ी हुई काठ-सी दिखायी देती थी । भरतश्रेष्ठ ! कल ही पतिदेव की मृत्यु होने वाली है, यह सोचकर दुःख में डूबी हुई सावित्री की वह रात खड़-ही-खड़े बीत गयी। दूसरे दिन यह सोचकर कि आज ही वह दिन है, उसने सूर्यदेव के चार हाथ ऊपर उठते-उठते पूर्वान्हकाल के सब कृत्य पूरे कर लिये और प्रज्वलित अग्नि में आहुजि दी।। फिर सभी ब्राह्मणों, बड़े-बूढ़ों और सास-ससुर को क्रमशः प्रणाम करके वह नियमपूर्वक हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी रही। उस तपोवन में रहने वाले सभी तपस्वियों ने सावित्री के लिये अवैधव्यसूचक- सौभाग्यवर्धक, शुभ और हितकर आशीर्वाद दिये। सावित्री ने ध्यानयोग में स्थित हो तपस्वियों की उस आशीर्वादमयी वाणी को ‘एकमसतु (ऐसा ही हो)’ कहकर मन-ही-मन शिरोधार्य किया। फिर पति की मृत्यु से सम्बन्ध रखने वाले समय और मुहुर्त की प्रतीक्षा करती हुई राजकुमारी सावित्री नारदजी के पूर्वोक्त वचन का चिन्तन करके बहुत दुखी हो गयी। भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर सास और ससुर ने एकान्त में बैठी हुई राजकुमारी सावित्री से प्रेमपूर्वक इस प्रकार कहा सास-ससुर बोले- बेटी ! तुमने शास्त्र के उपदेश के अनुसार अपना व्रत पूरा कर लिया है, अब पारण करने का समय हो गया है। अतः जो कर्तव्य है, वह करो। सावित्री बोली- सूर्यास्त होने पर जब मेरा मनोरथ पूर्ण हो जायगा, तीाी मैं भोजन करूँगी। यह मेरे मन का संकल्प है और मैंने ऐसा करने की प्रतिज्ञा कर ली है। मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! जब सावित्री भोजन के सम्बन्ध में इस प्रकार बातें कर रही थी, उसी समय सत्यवान् कंधे पर कुल्हाड़ी रखकर (फल-फूल, समिधा आदि लाने के लिये) वन की ओर चले।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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