महाभारत विराट पर्व अध्याय 13 श्लोक 18-29

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त्रयोदशम (13) अध्याय: विराट पर्व (समयपालन पर्व)

महाभारत: विराट पर्व त्रयोदशमोऽध्यायः श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद


उन सबमें एक बहुत बड़ा पहलवान था, जो दूसरे सब पहलवानों को अपने साथ लड़ने के लिये ललकारता था। जब वह अखाड़े में उतरकर उछलने लगा, उस समय कोई भी उसके समीप खडत्रा न हो सका। जब वे सभी मलल उदासीन हो हिम्मत हार बठइे, तब मत्स्यनरेश ने रसोइये से उस पहलवान को लड़ाने का निश्चय किया। उस समय राजा से प्रेरित होने पर भीमसेन ने (पहचाने जाने के भय से) दुखी होकर ही उससे लड़ने का विचार 1874 किया। वे राजा की बात को प्रकट रूप में टाल नहीं सकते थे। तदनन्तर पुरुषसिंह भीम ने सिंह के समान धीमी चाल से चलते हुए राजा विराट का मान रखने के लिये उस विशाल रंगभूमि में प्रवेश किया। फिर लोगों में हर्ष का संचार करते हुए उन्होंने लँगोट बाँधा और उस प्रसिद्ध पराक्रमी जीमूत नामक मल्ल को, जो वृत्रासुर के समान दिखायी देता था, युद्ध के लिये ललकारा। वे दोनों बडत्रे उत्साह में भरे थे। दोनों ही प्रचण्ड पराक्रमी थे, ऐसा लगता था मानो साठ वर्ष के दो मतवाले एवं विशालकाय गजराज एक दूसरे से भिड़ने को उद्यत हों। अत्यनत हर्ष में भरकर एक दूसरे को जीत लेने की इच्छा वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर बाहुयुद्ध करने लगे। उस समय उन दोनों में बड़ी भयंकर भिउ़न्त हुई। उनके परस्पर के आघात से इस प्रकार चटचट शब्द होने लगा, मानो वज्र और पर्वत एक दूसरे से टकरा गये हों। दोनों अत्यन्त प्रसन्न थे। बल की दृष्अि से दोनो ही अत्यन्त बलशाली थे और एक दूसरे पर चोट करने का अवसर देखते हुए विजय के अभिलाषी हो रहे थे। दोनों में भरपूर हर्ष और उत्साह भरा था। दोनों ही मतवाले गजराजों की भाँति एक दूसरे से भिड़े हुए थे। जब ऐ दूसरे का कोई अंग जोर से दबाता, तब दूसरा फौरन उसका प्रतिकार करता- उस अंग को उसकी पकड़ से छुड़ा लेता था। दोनों एक दूसरे के हाथों को मुट्ठी से पकड़कर विवश कर देते और विचित्र ढंग से परस्पर प्रहार करते थे। दोनों आपस में गुँथ जाते और फिर धक्के देकर एक दूसरे को दूर हटा देते। कभी एक दूसरे को पटककर जमीन पर रगड़ता, तो दूसरो नीचे से ही कुलाँचकर ऊपरवाले को दूर फेंक देता था उसे लिये-दिये खडत्रा हो अपने शरीर को दबाकर उसके अंगों को भी मथ डालता था। कभी दोनों को बलपूर्वक पीछे हटाते और मुक्कों से एक दूसरे की छाती पर चोट करते थे। कभी एक को दूसरा अपने कंधे पर उठा लेता और उसका मुँह नीचे करके घुमाकर पटक देता था, जिससे ऐसा शब्द होता; मानो किसी शूकर ने चोट की हो। कभी परस्पर तर्जनी और अंगूठे के मध्यभाग को फैलाकर चाँटों की मार होती और कभी हाथ की अंगुलियों को फैलाकर वे एक-दूसरे को थप्पड़ मारते थे।।28।। कभी वे रोषपूर्वक अंगुलियों के नखों से एक दूसरे को बकोटते। कभी पैरों से उलझाकर दोनों दोनो को गिरा देते। कभी घुटने और सिर से अक्कर मारते; अजससे पत्थर टकराने के समान भयंकर शब्द होता था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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