सप्तनवत्यधिकद्विशततम (297) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)
महाभारत: वन पर्व: सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 76-93 श्लोक का हिन्दी अनुवाद
‘दक्षिण ओर पश्चिम के कोण की दिशा में जाकर ये उग्र सियारिनें भयंकर शब्द कर रही हैं, जिससे मेरा हृदय काँप उठता है।
सत्यवान् बोले- प्रिये ! यह वन गाढ़ अंधकार से आच्छादित होकर अत्यनत भयंकर दिखायी दे रहा है। इस समय न तो तुम्हें रास्ता सूझेगा और न तुम चल ही सकोगी।
सावित्री ने कहा- आज इस वन में आग लगी थी। इसमें एक सूखा वृक्ष खड़ा है जो जल रहा है। हवा लगने से उसमें कहीं-कहीं आग दिखायी देती है। वहीं से आग ले आकर मैं सब ओर लकडि़याँ जलाऊँगी। यहाँ बहुत से काठ-कबाड़ पडत्रे हैं। आप मन से चिन्ता निकाल दीजिये। परंतु मैं आपको रुग्ण देख रही हूँ। ऐसी दशा में यदि आपके मन में चलने का उत्साह न हो अथवा इस तिमिराच्छन्न वन में यदि आपको रासते का ज्ञान न हो सके तो आपकी अनुमति होने पर हम दोनों कल सवेरे, जब वन की हर एक वस्तु स्पष्ट दीखने लगे, घर चलेंगे। अनघ ! यदि आपकी रुचि हो तो एक रात हम लोग यहीं निवास करें।।
सत्यवान् ने कहा- प्रिये ! मेरे सिर का दर्द दूर हो गया है। मुझे अपने सब अंग स्वस्थ दिखायी दे रहे हैं। अब तुम्हारे कृपा प्रसाद से मैं अपने माता-पिता से मिलना चाहता हूँ।। आज से पहले कभी भी मैं इतनी देर करके असमय में अपने आरम पर नहीं लौटा हूँ। संध्या होने से पहले ही माता मुझे रोक लेती है- आश्रम से बाहर नहीं जाने देती है। दिन में यदि मैं आश्रम से दूर निकल जाता हूँ तो मेरे माता-पिता व्याकुल हो उठते हैं एवं पिताजी आश्रम-वासियों के साथ मुझे खोजने निकल पड़ते हैं। मेरे माता-पिता ने अत्यन्त दुखी होकर पहले कई बार मुझे उलाहना दिया है कि ‘तू देर सं घर लौटता है’। आज मेरे लिये उन दोनों की क्या अवस्था हुई होगी ? यह सोचकर मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है। मुझे न देचाने पर उन दोनों को महान् दुःख होगा। पहले की बात है, मेरे वृद्ध माता-पिता ने अत्यन्त दुखी हो रात में आँसू बहाते हुए मुझसे बारंबार प्रेमपूर्वक कहा था- ‘बेटा ! तुम्हारे बिना हम दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते। वत्स ! तुम जब तक जीवित रहोगे, तभी तक हमारा भी जीवन निश्चित है। ‘हम दोनों बेढ़े और अंधे हैं। तुम्हीं हमारी दृष्टि हो तथा तुम्हीं पर हमारा वंश प्रतिष्ठित है। हम दोनों का पिण्ड, कीर्ति ओर कुलपरम्परा सब कुछ तुम पर ही अवलम्बित है’। मेरी माता बूढ़ी है। पिता भी वृद्ध हैं, केवल मैं ही उन दोनों के लिये लाठी का सहारा हूँ। वे दोनों रात में मुझे न देखकर पता नहीं किस दशा को पहुँच जायँगे ? मैं अपनी इस नींद को कोसता हूँ, जिसके कारण मेरे पिता तथा कभी मेरा अपकार न करने वाली मेरी माता का जीवन संशय में पड़ गया है।
मैं भी कठिन विपत्ति में फँसकर प्राण-संशय की दशा में आ पहुँचा हूँ। माता-पिता के बिना तो मैं कदापि जीवित नहीं रह सकता। निश्चय ही इस समय मेरे प्रज्ञाचक्षु (अंधे) पिता व्याकुल हृदय से एक-एक आश्रम वासी से मेरे विषय में पूछ रहे होंगे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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