महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 14-21
षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))
महामना भीमसेन दुरात्मा कीचक को मार डालने की इच्छा से उस समय रोषवश दाँतों से दाँत पीसने लगे। उनकी आँखों की पलकें ऊपर उठकर तन गयीं। उनमें धूआँ सा छा गया, ललाट में पसीना निकल आया और भौंहें टेढ़ी होकर भयंकर प्रतीत होने लगीं। शत्रुहन्ता भीम हाथ से माथे का पसीना पोंछने लगे। फिर तुरंत ही प्रचण्ड कोप में भर गये और सहसा उठने की इच्छा करने लगे। तब राजा युधिष्ठिर ने रहस्य प्रकट हो जाने के डर से अपने अंगूठे से भीम का अंगूठा दबाया अैर इस प्रकार उन्हें उत्तेजित होने से रोका। भीमसेन मतवाले गजराज की भाँति एक वृक्ष की ओर देख रहे थे। तब युधिष्ठिर ने उन्हे रोकते हुए कहा-‘बल्लव ! क्या तुम्हें ईंधन के लिये वृक्ष की ओर देखते हो ? यदि रसोई के लिये सूखी लकड़ी चाहिये, तो बाहरजाकर वृक्ष से ले लो।।19।। ‘जिस हरे भरे वृक्ष की शीतल छाया का आरय लेकर रहा जाय, उसके किसी एक पत्ते से भी द्रोह नहीं करना चाहिये। उसके पहले उपकारों को सदा याद रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिये’।। तब भाई के संकेत को समझने वाले भीमसेन उस समय चुप हो गये। भीम के उस क्रोध को तथा राजा युधिष्ठिर की शान्तिपूर्ण चेष्टा को देखकर द्रौपदी अधिक क्रुद्ध हो उठी। कीचक के पीछा करने से कृष्णा की आँखें रोष से लाल हो रही थी। वह खीज से बार-बार रोने लगी। इधर सुन्दर कटिप्रान्त वाली द्रौपदी राजसभा के द्वार पर आकर अपने दीन हृदय वाले पतियों की ओर देखती हुई मत्स्यनरेश से बोली।
1887
उस समय वह प्रतिज्ञारूप धर्म से आबद्ध होने के कारण अपने स्वरूप को छिपा रही थी; किन्तु उसके नेत्र मानो जला रहे हों, इस प्रकार भयंकर हो उठे थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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