महाभारत वन पर्व अध्याय 301 श्लोक 1-18
एकाधिकत्रिशततम (301) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)
सूर्य का कर्ण को समझाते हुए उसे इन्द्र को कुण्डल न देने का आदेश देना
सूर्य ने कहा- कर्ण ! तुम अपना, अपने सुहृदों का, पुत्रों और पत्नियों का तथा माता-पिता का अहित न करो। प्राणधारियों में श्रेष्ठ वीर ! अपने शरीर की रक्षा करते हुए ही प्राणियों को इहलोक में यश की प्राप्ति तथा स्वर्ग में स्थायी कीर्ति अभीष्ट होती है। यदि तुम प्राणों का विरोध (नाश) करके सनातन कीर्ति प्राप्त करना चाहते हो, तो इसमें संदेह नहीं कि वह (कीर्ति) तुम्हारे प्राणों को लेकर ही जायगी। पुरुषरत्न ! पिता, माता, पुत्र तथा और जो कोई भी भाई-बन्धु इस जा में हैं, वे सब जीवित पुरुषों से ही अपने प्रयोजन की सिद्धि करते हैं। महातेजस्वी नरश्रेष्ठ ! राजा लोग भी जीवित रहने पर ही पुरुषार्थ से कीर्तिलाभ करते हैं। इस बात को समणे; जीवित पुरुष के लिये कीर्ति अचछी मानी गयी है। जो मर गया, जिसका शरीर चिता की आग में जलकर भस्म हो गया; उसे कीर्ति से क्या प्रयोजन है , मरा हुआ पुरुष कीर्ति के विषय में कुछ नहीं जानता है। जीवित पुरुष ही कीर्तिजनित सुख का अनुभव करता है। मरे हुए मनुष्य की कीर्ति मुर्दे के गले में पड़ी हुई माला के समान वयर्थ है। तुम मेरे भक्त हो, इसीलिये तुम्हारे हित की इच्छा से मैं ये बातें कहता हूँ। मुझे अपने भक्तों की रक्षा करनी ही चाहिये, इसीलिये भी तुमसे तुम्हारे हित की बात कहता हूँ। महाबाहो ! यह मेरा भक्त है, परम भक्तिभाव से मेरा भजन करता है, यह सोचकर मेरे मन में भी तुम्हारे प्रति स्नेह जाग उठा है। अतः तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। इस सम्बन्ध में एक देवविहित आध्यात्मिक रहस्य है। इसी कारण तुमसे कह रहा हूँ कि तुम बेखटके यही कार्य करो, जिसे मैंने तुम्हें बतलाया है। पुरुषरत्न ! देवताओं की गुप्त बात तुम नहीं समझ सकते, इसीलिये वह गोपनीय रहस्य तुम्हें नहीं बता रहा हूँ। समय आने पर तुम सब कुछ अपने आप जान लोगे। राधानन्दन ! मैं फिर अपनी कही हुई बात दुहराता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो- ‘इन्द्र के माँगने पर भी तुम उन्हें अपने वे कुण्डल न देना’। महाद्युते ! तुम इन दोनों मनोहर कुण्डलों से निर्मल आकाश में विशाखा नामक दो नक्षत्रों के बीच प्रकाशित होने वाले चन्द्रमा की भाँति शोभा पाते हो। तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि जीवित पुरुष के लिये ही कीर्ति प्रशंसनीय है। अतः तात ! तुम्हें कुण्डल के लिये आये हुए देवराज इन्द्र को देने से इन्कार कर देना चाहिये। अनध ! तुम बारंबार युक्तियुक्त वचन कहकर अनेक प्रकार की बातों में बहलाकर देवराज इन्द्र की कुण्डल लेने की इच्छा को नष्ट कर सकते हो। कर्ण ! अनेक कारण दिखाकर, नाना प्रकार की युक्तियाँ सामने रखकर तथा माधुर्यगुण से विभूषित वचन सुनाकर देवराज इन्द्र के इस कुण्डल लेने के विचार को तुम पलट देना। नरव्याघ्र ! तुम सदा अर्जुन से स्पर्घा रचाते हो; अतः शूरवीर अर्जुन युद्ध में कभ्ज्ञी तुमसे अवश्य भिड़ेगा। यदि तुम इन दोनों कुण्डलों को धारण किये रहोगे, तो अर्जुन तुम्हें युद्ध में कदापि नहीं जीत सकते; भले ही साक्षात् इन्द्र भी उनकी सहायता करने के लिये आ जायँ। अतः कर्ण ! यदि तुम समरभूमि में अर्जुन को जीतने की अभिलाषा रखते हो, तो इन्द्र को यसे दोनों शुभ कुण्डल कदापि न देना।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत कुण्डलाहरणपर्व में सूर्य कर्ण संवाद विषयक तीन सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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