महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 43-50

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षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))

महाभारत: विराट पर्व षोडशोऽध्यायः श्लोक 43-50 का हिन्दी अनुवाद


‘सुन्दर केशप्रान्त वाली सैरन्ध्री ! तुम मोक्षधर्म से सम्बन्ध रखने वाली बातें सुनो। धर्मशास्त्र के अनुसार कुलवती स्त्रिायों का धर्म इस प्रकार देखा गया है। ‘स्त्री के लिये न कोई यज्ञ है, न श्राद्ध है और न उपवास का ही विधान है। स्त्रियों के द्वारा जो पति की सेवा होती है, वही उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाली है। ‘कुमारावस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र नारी की रक्षा करता है। स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये। ‘पतिव्रता स्त्रियाँ नाना प्रकार के क्लेश सहकर तथा शत्रुओं द्वारा अपमानित होकर भी अपने पतियों पर कभी क्रोध नहीं करतीं। ‘इस प्रकार अनन्तभाव से पति की शुश्रुषा करने वाली स्त्रियाँ पुण्यलोकों को प्राप्त कर लेती है। सैरन्ध्री ! तुम्हारे पतियों के कुपित होने पर तो वृत्रहनता इन्द्र भी युद्ध में उनका सामना नहीं कर सकते। ‘विशाललोचने ! यदि उनके साथ तेरी कोई शर्त हुई हो, तो उसे याद कर ले। क्षमाशीले ! क्षमा सबसे उत्तम धर्म है। ‘क्षमा सत्य है, क्षमा दान है, क्षमा धर्म है और क्षमा ही तप है। क्षमाशील मनुष्यों के लिये ही यह लोक और पालोक है। जिसके दो (उत्तरायण और दक्षिणायन) अंश हैं, बारह (मास) अंग हैं, चैबीस (पक्ष) पर्व हैं और तरन सौ साठ (दिन) अरे हैं, उस कालचक्र को पूर्ण होने में यदि एक मास की कमी रह गयी हो; तो कौन उसकी प्रतीचा न करके क्षमा का त्याग कर सकता है ?’ वैयाम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! इतना कहने पर भी जब द्रौपदी वहाँ खड़ी ही रह गयी, तब धर्मराज ने पुनः उससे कहा- ‘सैरन्ध्री ! तू अवसर को नहीं पहचानती; इसीलिये नटी की भाँति राजसभा में रो रही है और द्यूतक्रीड़ा में लगे हुए मत्स्यराजकुमारों के खेलने में विघन डालती है। 1891 ‘सैरन्ध्री ! जाओ, गन्धर्व तुम्हारा प्रिय करेंगे। जिसने तुम्हारा अपकार किया है, उसे मारकर तुम्हारा दुःख दूर कर देंगे’। सैरन्ध्री बोली- जिनके बड़े भाई सदा जूआ खेला करते हैं, उन दयालु गन्धर्वों के लिये मैं अत्यन्त धर्मपरायणा रहूँगी। मेरा अपकार करने वाले दुरात्मा उन सबके लिये वध्य हों। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर सुन्दर कटिप्रदेश वाली द्रौपदी तीव्र गति से रानी सुदेष्णा के महल को चली गयी। उसके केश खुले हुए थे और क्रोध से उसकी आँखें लाल हो रही थीं। उस समय रोती हुई द्रौपदी का मुख इस प्रकार सुशोभित हो रहा था, मानो आकाश में मेघमाला के आवरण से मुक्त चन्द्रबिम्ब शोभा पा रहा हो। समसत अंगों में धूलि से धूसरित गजराजवधू की भाँति शोभा पाने वाली तथा हाथी की सूँड के समानजाँघों वाली द्रौपदी स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य करके राजसभा से अन्तःपुर में चली गयी। उसके स्तन एक दूसरे से सटे हुए थे, तथा नेत्र मृगशावकों के समान चन्चल हो रहे थे। वह कीचक के हाथ से छूटकर शोक और इुःख से इस प्रकार मलिन हो रही थी, मानो चन्द्रमा की प्रभा वर्षाकाल के मेघों से आच्छादित हो गयी हो। जिसके लिये समस्त पाण्डव अपने प्राण तक दे सकते थे, उसी कृष्णा को उस दशा में देखकर भी धर्मात्मा पाण्डव क्षमा धारण किये बैठे थे। जैसे समुद्र अपने तट की सीमा का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार वे अज्ञातवास के लिये स्वीकृत समय का अतिक्रमण नहीं कर रहे थे। सुदेष्णा ने पूछा- वरारोहे ! तुम्हें किसने मारा है ? शोभने ! तू क्योे रोती है ? भद्रे ! आज किसका सुचा समाप्त हो गया है ? किसने तुम्हारा अपराध किया है ?कमल के समान कमनीय, सुन्दर दाँत, ओठ, नेत्र और नासिका से सुशोभित तथा पूर्णचन्द्र के समान कान्तिमान् तुम्हारा यह मनोहर मुख ऐसा (मलिन) क्यों हो रहा है ? तुम रोती हुई अपने मुख पर बहे हुए अश्रुओं को पोंछ रही हो। काली पुतली वाले सरल नेत्रों से सुशोभित, बिम्बफल के समान अरुण अधरों से उपलक्षित और अत्यन्त मनोहर प्रभा से प्रकाशित तुम्हारा मुख इस समय आँसू क्यों गिरा रहा है ? वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तब कृष्णा ने लंबी साँसें खींचकर कहा- ‘तुम सब कुछ जानती हुई भी मुझसे क्या पूछ रही हो ? स्वयं ही मुझे अपने भाई के पास भेजकर अब इस प्रकार की बातें क्यों बना रही हो ? द्रौपदी फिर बोली- मैं तुम्हारे लिये मदिरा लेने गयी थी। वहाँ कीचक ने राजसभा में महाराज के देखते-देखते मुझ परद प्रहार किया है; ठीक उसी तरह, जैसे कोई निर्जन वन में किसी असहाय अबला पर आघात करता हो। 1892 सुदेष्णा ने कहा- सुन्दर लटों वाली सुन्दरी ! यदि तुम्हारी सम्मति हो, तो मैं कीचक को मरवर डालूँ; जो काम से उन्मत्त होकर तुम जैसी दुर्लभ देवी का अपमान कर रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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