महाभारत वन पर्व अध्याय 303 श्लोक 18-29

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त्र्यधिकत्रिशततम (303) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्र्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः 18-29 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


‘अतः बेटी ! इस समय सेवा का यह महान् भार मैंने तुम्हारे ऊपर रक्खा है। तुम सदा नियमपूर्वक इन ब्राह्मण देवता की आराणना करती रहो। ‘माता-पिता का आनन्द बढ़ाने वाली पुत्री ! मैं जानता हूँ, बचपन से ही तुमहारा चित्त एकाग्र है। समस्त ब्राह्मणों, गुरुजनों, बन्धु-बान्धवों, सेवकों, मित्रों, सम्बन्धियों तथा माताओं के प्रति और मेरे प्रति भी तुम सदा यथोचित बर्ताव करती आई हो। तुमने अपने सद्भाव से सबको प्रभावित कर लिया है। ‘निर्दोष अंगों वाली पुत्री ! नगर में या अनतःपुर में सेवकों में भी कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो तुम्हारे उत्तम बर्ताव से संतुष्ट न हो। ‘तथापि पृथे ! तुम अभी बालिका और मेरी पुत्री हो, इसलिये इन क्रोधी ब्राह्मण के प्रति बर्ताव करने के विषय में तुम्हें कुछ उपदेश देने की आवश्यकता का अनुभव मैं करता हूँ।। ‘वृष्णिवंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम शूरसेन की प्यारी पुत्री हो। पूर्वकाल में स्वयं तुत्हारे पिता ने बाल्यावस्था में ही बड़ी प्रसन्नता के साथ तुमहें मेरे हाथों सौंपा था। तुम वसुदेव की बहिन तथा मेरी संतानों में सबसे बड़ी हो। पहले उनहोंने यह प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि मैं अपनी पहली संतान तुम्हें दे दूँगा। उसी के अनुसार उन्होंने तुम्हें मेरी गोद मे अर्पित किया है, इस कारण तुम मेरी दत्तक पुत्री हो। ‘वैसे उत्तम कुल में तुम्हारा जन्म हुआ तथा मेरे श्रेष्ठ कुल में तुम पालित और पोषित होकर बड़ी हुई। जैसे जल की धारा एक सरोवर से निकलकर दूसरे सरोवर में गिरती है, उसी पगकार तुम एक सुखमय स्थान से दूसरे सुखमय स्थान में आयी हो। ‘शुभे ! जो दूषित कुल में उत्पन्न होने वाली स्त्रियाँ हैं, वे किसी तरह विशेष आग्रह में पड़कर अपने अविवेक के कारण प्रायः बिगड़ जाती हैं (परंतु तुमसे ऐसी आशंका नहीं है)। ‘पृथे ! तुमहारा जन्म राजकुल में हुआ है। तुम्हारा रूप भी अद्भुत है। कुल और स्वरूप के अनुसार ही तुम उत्तम शील, सदाचार और सद्गुणों से संयुक्त एवं सम्पन्न हो। साथ ही विचारशील भी हो। ‘सुन्दर भाव वाली पृथे ! तुम दर्प, दम्भ और मान को त्याग कर यदि इन वरदायक ब्राह्मण की आराधना करोगी, तो परम कल्याण की भागिनी होओगी। ‘कल्याणि ! तुम पापरहित हो। यदि इस प्रकार इनकी सेवा करने में सफल हो गयीं, तो तुम्हें निश्वय ही कल्याण की प्रापित होगी और यदि तुमने अपने अनुचित बर्ताव से इन श्रेष्ठ ब्राह्मण को कुपित कर दिया, तो मेरा सम्पूर्ण कुल जलकर भस्म हो जायगा’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत कुण्डलाहरणपर्व में पृथा को उपदेश विषयक तीन सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ।









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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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