महाभारत विराट पर्व अध्याय 18 श्लोक 10-25
अष्टदश (18) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))
महाबली पाण्डुनन्दन ! मैं तुम्हारे अमर्ष, बल और पराक्रम को जानती हूँ; इसीलिये मैं तुम्हारे आगे रोती बिलखती हूँ।
1898
पुरुषसिंह पाण्डुपुत्र ! जैसे साठ वर्ष का मतवाला यूथपति गजराज धरती पर गिरे हुएबेल के फल को पैरों से दबाकर कुचल डाले, उसी प्रकार कीचक के मसतक को पृविी पर गिराकर बाँयें पैर से मसल डालो। यहद कीचक इस रात्रि के बीतने पर प्रातःकाल उठकर उगते हुए सूर्य का दर्शन कर लेगा, तो मैं जीवित नहीं रह सकूँगी। दूषित द्यूतक्रीड़ा में लगे रहने वाले अपने उस जुआरी भाई की निन्दा करो, जिसकी करतूत से मैं इस अत्यन्त दुःख में पड़ गयी हूँ। निन्दनीय जूए में आसक्त रहने वाले उस जुआरी को छोड़कर दूसरा कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपने साथ ही राज्य तथा सर्वस्व परित्याग करके वनवास लेने की शर्त पर जूआ खेल सकता है ? यदि वे प्रतिदिन शाम सवेरे एक सहसत्र स्वर्णमुद्राओं से जूआ खेलते तथा जो दूसरे बहुमूल्य धन थे, उनको- सोने, चाँदी, वस्त्र, सवारी, रथ, बकरी, भेड़, घोड़े और खच्चरों आदि के समूह को बहुत वर्षों तक भी दाँव पर लगाते रहते, तो भी हमारा राज्य वैभव कभी क्षीण नहीं होता। जूए की आसक्ति ने इन्हें राजलक्ष्मी के सिंहासन से नीचे उतार दिया है ओर अब ये अपने उन कर्मों का चिन्तन करते हुए अज्ञ की भाँति चुपचाप बैठे हैं। जिनके कहीं यात्रा करते समय दस हजार हाथी औी सोने की मालाएँ पहने हुए सहस्त्रों घोड़े पीछे-पीछे चलते थे, वे ही महाराज यहाँ जूए से जीविका चलाते हैं। इन्द्रप्रस्थ में जिनकी सवारी के लिये एक लाख रथ प्रस्तुत रहते थे और जिन महाराज युधिष्ठिर की सेवा में सहस्त्रों महापराक्रमी राजा बैठा करते थे, जिनके भेजनालय में नित्य एक लाख दासियाँ सोने के पात्र हाथ में लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन कराया करती थीं तथा जो दाताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर रोज सहस्त्रों सवर्णमुद्राएँ दान में बाँटा करते थे, वे ही धर्मराज यहाँ जूए में कमाये हुए महान् अनर्थकारी धन से जीवन-निर्वाह कर रहे हैं। इन्द्रप्रस्थ में विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण करने वाले बहुत से सूत और मगाध मधुर स्वर में संयुक्त वाणी द्वारा सायंकाल और प्रातःकाल इन महाराज की स्तुति किया करते थे। तपस्या और वेदज्ञान से सम्पन्न सहस्त्रों पूर्णकाम ऋषि-महर्षि प्रतिदिन इनकी राजसभा में बैठा करते थे। अट्ठासी हजार स्नातक गृहस्थ ब्राह्मणों का, जिनमें से एक-एक की सेवा के लिये तीन-तीन दासियाँ थीं, राजा युधिष्ठिर अपने यहाँ पालन करते थे। साथ ही ये महाराज दान न लेने वाले दस हजार ऊध्र्वरेता संन्यासियों का भी स्वयं ही भरण-पोषण करते थे। आज वे ही इस अवस्था में रह रहे हैं। जिनकी कोमलता, दया और सबको अन्न-वस्त्र देना आदि समसत सद्गुण विद्यमान थे, वे ही ये महाराज आज इस दुरावस्था में पड़े हैं।
1899
धैर्यवान् तथा सत्यपराक्रमी राजा युधिष्ठिर अपने कोमल स्वभाव के कारण सदा सबको भोजन आदि देने में मन लगाते थे और अपने राज्य के अनेक अंधों, बूढ़ों, अनाथों, बालकों तथा दुर्गति में पड़े हुए लोगों का भरण पोषण करते थे। वे ही युधिष्ठिर आज मत्स्यराज के सेवक होकर परतन्त्रतारूपी परक में पड़े हुए हैं। ये सभा में राजा को जूआ खेलाते और कंक कहकर अपना परिचय देते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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