षष्टित्तम (60) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व : षष्टित्तम अध्याय: श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार युद्ध को ही क्षत्रियों के लिये प्रधान मार्ग बताया गया है, उसके लिये लुटेरों के संहार से बढ.कर दुसरा कोई श्रेष्ठतम कर्म नहीं है। यद्यपि दान, अध्ययन और यज्ञ-इनके अनुष्ठान से भी राजाओं का कल्याण होता है, तथापि युद्धके लिये उद्यत रहना चाहिये । राजा समस्त प्रजाओं को अपने -अपने धर्मों में स्थापित करके उनके द्वारा शांतिपूर्णं समस्त कर्मों का धर्म के अनुसार अनुष्ठान करावे। राजा दुसरा कर्म करे या न करे, प्रजा की रक्षा करने मात्रा से वह कृतकृत्य हो जाता है। उसमें इन्द्र देवता- सम्बन्धी बल की प्रधानता होने से राजा ‘ऐन्द्र’ कहलाता है। अब वैश्य का जो सनातन धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हुं। दान, अध्ययन, यज्ञ और पवित्रतापूर्वक धन का संग्रह ये वैश्य के कर्म हैं। वेश्य सदा उद्योगशील रहकर पुत्रों की रक्षा करने वाले पिता के समान सब प्रकार के पशुओं का पालन करे। इन कर्मों के सिवा वह और जो कुछ भी करेगा, वह उसके लिये विपरीत कर्म होगा। पशुओं के पालन से वैश्य को महान सुख की प्राप्ति हो सकती है। प्रजापति ने पशुओं की सृष्टि करके उनके पालन का भार वैश्य को सौंप दिया था। ब्राह्मण और राजा को उन्होंने सारी प्रजा के पोषण का भार सौंपा था। अब मैं वैश्य की उस वृत्ति का वर्णन करूँगा, जिससे उसका जीवन निर्वाह हों। वैश्य यदि राजा या किसी दूसरे की छः दुधारू गौओं का एक वर्ष तक पालन करे तो उनमें से एक गौ का दूध वह स्वयं पीये ( यही उसके लिये वेतन है )। यदि दूसरे की एक सौ गौओं का वह पालन करे तो सालभर में एक गाय और एक बैल मालिक से वेतन के रूप में ले। यदि उन पशुओं के दूध आदि बेचने से धन प्राप्त हो तो उसमें सातवाँ भाग वह अपने वेतन के रूप में ग्रहण करे। सींग बेचने से जो धन मिले, उसमें से भी वह सातवाँ भाग ही ले; परंतु पशुविशेष का बहुमूल्य खुर बेचने से जो धन प्राप्त हो, उसका सोलहवाँ भाग ही उसे ग्रहण करना चाहिये। दूसरे के अनाज की फसलों तथा सब प्रकार के बीजों की रक्षा करने पर वैश्य को उपज का सातवाँ भाग वेतन के रूप् में ग्रहण करना चाहिये। यह उसके लिये वार्षिक वेतन है। वैश्य के मन में कभी यह संकल्प नहीं उठना चाहिये कि मैं पशुओं का पालन नहीं करूंगा। जब तक वैश्य पशुपालन का कार्य करना चाहे, तब तक मालिक को दूसरे किसी के द्वारा किसी तरह भी वह कार्य नहीं कराना चाहिये, भारत! अब मैं शूद्र का भी धर्म तुम्हें बता रहा हूँ। प्रजापति ने अन्य तीनों वर्णों के सेवक के रूप में शूद्र की सृष्टि की है; अतः शूद्र के लिये तीनों वर्णों की सेवा ही शास्त्र-विहित कर्म है। वह उन तीनों वर्णों की सेवा से ही महान सुख का भागी हो सकता है। अतः शूद्र इन तीनों वर्णों की क्रमशः सेवा करे। शूद्र को कभी किसी प्रकार भी धन का संग्रह नहीं करना चाहिये; क्योंकि धन पाकर वह महान पाप में प्रवृत्त हो जाता है और अपने से श्रेष्ठतम पुरूषों को भी अपने अधीन रखने लगता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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