षष्टित्तम (60) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व : षष्टित्तम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
धर्मात्मा शूद्र राजा की आज्ञा लेकर अपनी इच्छा के अनुसार कोई धार्मिक कृत्य कर सकता है। अब मैं उसकी वृत्ति का वर्णन करूंगा, जिससे उसकी आजीविका चल सकती है। तीनों वर्णों को शूद्र का भरण पोषण अवश्य करना चाहिये; क्योंकि वह भरण-पोषण करने योग्य कहा गया है। अपनी सेवा में रहने वाले शूद्र को उपभोग में लाये हुए छाते, पगड़ी, अनुलेपन, जूते और पंखे देने चाहिये। फटे-पुराने कपडे, जो अपने धारण करने योग्य न रहें, वे द्विजातियों द्वारा शू्रद्रको ही दे देने योग्य हैं; क्योंकि धर्मतः वे सब वस्तुएँ शूद्र की ही सम्पति हैं। द्विजातियोंमे से जिस किसीकी सेवा करनेके लिये कोई शूद्र आवे, उसीको उसकी जीविका की व्यवस्था करनी चाहिये; ऐसा धर्मज्ञ पुरुषों का कथन है। यदि स्वामी संतानहीन हो तो सेवा करनेवाले शूद्र को ही उसके लिये पिण्डदान करना चाहिये । यदि स्वामी बूढा या दुर्बल हो तो उसका सब प्रकार से भरणपोषण करना चाहिये। किसी आपतिमें भी शूद्रको अपने स्वामी के धन का नाश हो जाय तो शूद्रको अपने कुटुम्ब को पालने से बचे हुए धन के द्वारा उसका भरण-पोषण करना चाहिये। शुद्र का अपना कोई धन नहीं होता। उसके सारे धनपर उसके स्वामी का ही अधिकार होता है। भरतनन्दन! यज्ञ का अनुष्ठान तीनों वर्णों तथा शूद्र के लिये भी आवश्यक बताया गया है। शूद्रके यज्ञ में स्वाहाकार, वषट्कार तथा वैदिक मन्त्रोंका प्रयोग नहीं होता हैं। अतः शूद्र स्वयं वैदिक व्रतों की दी़क्षा न लेकर पाकयज्ञों (बलिवैश्देव आदि) द्वारा यजन करे। पाकयज्ञकी दक्षिणा पूर्णपात्रमयी[१] बतायी गयी हैं।
हमने सुना है कि पैजवन नामक शुद्रने ऐन्द्राग्र यज्ञ की विधि से मन्त्रहीन यज्ञ का अनुष्ठान करके उसकी दक्षिणाके रुप में एक लाख पूर्णपात्र दान किये थे। भरतनन्दन! बाह्मण आदि तीनों वर्णें का जो यज्ञ है वह सब सेवाकार्य करनेके कारण शूद्रका भी है ही (उसे भी उसका फल मिलता ही है; अतः उसे पृथक् यज्ञ करने की आवश्यकता नही है)। सम्पूर्ण यज्ञोंमें पहले श्रद्धारुप यज्ञ का ही विधान है। क्योंकि श्रद्धा सबसे बडा देवता है। वही यज्ञ करने वालोंको पवित्र करती है। ब्राह्मण साक्षात् यज्ञ करानेके कारण पनम देवता माने गये हैं। सभी वर्णों के लोग अपने-अपने कर्मद्वारा एक-दूसरेके यज्ञोंमें सहायक होते हैं। सभी वर्णके लोगोंने यहाँ यज्ञों का अनुष्ठान किया है और उनके द्वारा वे मनोवाच्छित फलोंसे सम्पन्न हुए हैं। ब्राह्मणोंने ही तीनों वर्णोंकी संतानोंकी सृष्टि की है ।
जो देवताओंके भी देवता हैं, वे ब्राह्मण जो कुछ कहें, वही सबके लिये परम हितकारक है; अतः अन्य वर्णोंके लोग ब्राह्मणोंके बताये अनुसार ही सब यज्ञोंका अनुष्ठान करें, अपनी इच्छासे न करे। ऋक्, साम और यजुर्वेदका ज्ञाता ब्राह्मण सदा देवताके समान पूजनीय है। दास या शूद्र ऋक्, यजु और सामने ज्ञानसे शून्य होता है; तो भी वह ‘प्राजापत्य‘ (प्रजापतिका भक्त) कहा गया है। तात! भरतनन्दन! मनसिक संकल्पद्वारा जो भावनात्मक यज्ञ होता है, उसमे सभी वर्णोंका अधिकार है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पूर्णपात्र का परिणाम इस प्रकार है- आठ मुठ्ठी अन्न को किंचित कहते है, आठ किंचित का एक पुष्कल होता है और चार पुष्कलका एक पूर्णपात्र होता है। इस प्रकार दो सौ छप्पन मुठ्ठी का एक पूर्णपात्र होता है।
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