चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दान धर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 173-188 का हिन्दी अनुवाद
वे भगवान इन्द्र लाल नेत्र और खड़े कान वाले, सुधा के समान उज्जवल, मुड़ी हुई सूंड से सुशोभित, चार दांतों से युक्त ओर देखने में भयंकर मद से उन्मत महान गजराज ऐरावत की पीठ पर बैठकर अपने तेज से प्रकाशित होते हुए वहां पधारे । उनके मस्तक पर मुकुट, गले में हार और भुजाओं में केयूर शोभा दे रहे थे। सिर पर श्वेत छत्र तना हुआ था । अप्सराएं उनकी सेवा कर रही थीं और दिव्य गन्धर्वों के संगीत की मनोरम ध्वनि वहां सब ओर गूंज रही थी। उस समय देवराज इन्द्र ने मुझसे कहा - 'द्विजश्रेष्ठ! मैं तुम से बहुत संतुष्ट हूं। तुम्हारे मन में जो वर लेने की इच्छा हो, वही मुझसे मांग लो।' इन्द्र की बात सुनकर मेरा मन प्रसन्न नहीं हुआ। मैंने ऊपर से हर्ष प्रकट करते हुए देवराज से यह कहा- 'सौम्य! मैं महादेव जी के सिवा तुमसे या दूसरे किसी देवता से वर लेना नहीं चाहता । यह मैं सच्ची बात कहता हूं।' 'इन्द्र ! हमारा यह कथन सत्य है, सत्य है और सुनिश्चित है । मुझे महादेव जी को छोड़कर और कोई बात अच्छी ही नहीं लगती है।' 'मैं भगवान पशुपति के कहने से तत्काल प्रसन्नतापूर्वक कीट अथवा अनेक शाखाओं से युक्त वृक्ष भी हो सकता हूँ, परंतु भगवान शिव से भिन्न दूसरे किसी के वर-प्रसाद से मुझे त्रिभुवन का राज्य वैभव प्राप्त हो रहा हो तो वह भी अभीष्ट नहीं है। 'यदि मुझे भगवान शंकर के चरणारविन्दों की वन्दना में तत्पर रहने का अवसर मिले तो मेरा जन्म चाण्डालों में भी हो जाये तो यह मुझे सहर्ष स्वीकार है। परंतु भगवान शिव की अनन्य भक्ति से रहित होकर मैं इन्द्र के भवन में भी स्थान पाना नहीं चाहता।' 'कोई जल या हवा पीकर ही रहने वाला क्यों न हो, जिसकी सुरासुरगुरु भगवान विश्वनाथ में भक्ति न हो, उसके दु:खों का नाश कैसे हो सकता है?' 'जिन्हें क्षण भर के लिये भी भगवान शिव के चरणारविन्दों के स्मरण का वियोग अच्छा नहीं लगता, उन पुरुषों के लिये अन्यान्य धर्मों से युक्त दूसरी-दूसरी सारी कथाएं व्यर्थ हैं। 'कुटिल कलिकाल कोपाकर सभी पुरुषों को अपना मन भगवान शंकर के चरणारविन्दों के चिन्तन में लगा देना चाहिए। शिव-भक्तिरूपी रसायन के पी लेने पर संसार रूपी रोग का भय नहीं रह जाता है।' 'जिस पर भगवान शिव की कृपा नहीं है, उस मनुष्य की एक दिन, आधे दिन, एक मुहूर्त, एक क्षण या एक लव के लिये भी भगवान शंकर में भक्ति नहीं होती है।' ‘शक्र! मैं भगवान शंकर की आज्ञा से कीट या पतंग भी हो सकता हूं, परंन्तु तुम्हारा दिया हुआ त्रिलोकी का राज्य भी नहीं लेना चाहता ।' महेश्वर के कहने से यदि मैं कुत्ता भी हो जाऊँ तो उसे मैं सर्वोत्तम मनोरथ की पूर्ति समझूंगा, परंतु महादेव जी के सिवा दूसरे किसी से प्राप्त हुए देवताओं के राज्य को लेने की भी मुझे इच्छा नहीं है। ‘न तो मैं स्वर्गलोक चाहता हूं, न देवताओं का राज्य की पाने की अभिलाषा रखता हूं । न ब्रह्मालोक की इच्छा करता हूं और न निर्गुण ब्रह्मा का सायुज्य ही प्राप्त करना चाहता हूं । भूमण्डल की समस्त कामनाओं को भी पाने की मेरी इच्छा नहीं है । मैं तो केवल भगवान शिव की दासता का ही वरण करता हूं।'
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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