महाभारत वन पर्व अध्याय 95 श्लोक 21-29

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पञ्चनवतितम (95) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: पञ्चनवतितम अध्‍याय: श्लोक 21-29 का हिन्दी अनुवाद

याचाकों को प्रतिदिन इसी प्रकारभोजन और दान दिया जाता था। राजन्! अन्‍यान्‍य ब्रह्माण भी वहां उतम रीति से तैयार की हुई रसोई जीमते थे । भरतनन्‍दन! उस यज्ञ में दक्षिणा देते समय जो वेद मन्‍त्रों की ध्‍वनि होती थी, वह स्‍वर्गलोक गूंज उठती थी। उस वेदध्‍वनि के सामने दूसरा कोई शब्‍द नहीं सुनायी पड़ता था । राजन्! वहां सब ओर फैले हुए प्रण्‍यमय शब्‍द से पृथ्‍वी, दिशाएं, स्‍वर्ग और आकाश परिपूर्ण हो गये। यह बडी़ ही बात थी। भरतश्रेष्‍ठ! उस यज्ञमें मनुष्‍य यह गाथा गाते रहते थे कि इस यज्ञ मे देश–देश के अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी पुरुष उतम अन्‍नपान से तृप्‍त हो रहे हैं । ‘गय के यज्ञ में लोग यही पूछते फिरते थे कि ‘कौन–कौन ऐसे प्राणी रह गये हैं, जो अभी भोजन करना चाहते हैं वहां खाने से बचे हुए अन्‍न के पचीस पर्वत शेष रह गये थे । ‘अमिततेजस्‍वी राजर्षि गयने अपने यज्ञमें जो ब्‍यय किया था, वह पहले के राजाओं ने भी नहीं किया था। और भविष्‍य में भी कोई दूसरे कर सकेंगे, ऐसा सम्‍भव नहीं है । ‘गयने सम्‍पूर्ण देवताओं के इविष्‍य को कैसे ग्रहण कर सकेंगे । ‘जैसे लोक में बालू के कण,आकाश के तारे और बरसते हुए बादलों की जल धराएं किसी के द्वारा भी गिनी नहीं जा सकतीं, उसी प्रकार गय के यज्ञ में दी हुई दक्षिणओं भी कोई गणना नहीं कर सकता था’। कुरुनन्‍दन! महाराज गय के ऐसे ही बहुत से यज्ञ इस ब्रहृासरोवर के समीप सम्‍पन्‍न हुए हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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