चतुःषष्टितम (64) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुःषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
- राजधर्म की श्रेष्ठताका वर्णन और इस विषय में इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताक संवाद
भीष्मजी कहते हैं-पाण्डुनन्दन ! चारों आश्रमोंके धर्म, यतिधर्म तथा लौकिक और वैदिक उत्कृष्ट धर्म सभी क्षात्रधर्ममें प्रतिष्ठित हैं।
भरतश्रेष्ठ ! ये सारे कर्म क्षात्रधर्मपर अवलम्बित हैं। यदि क्षात्रधर्म प्रतिष्ठित न हो तो जगत्के सभी जीव अपनी मनोवाच्छित वस्तु पानेसे निराश हो जायँ। आश्रमवासियोंका सनातन धर्म अनेक द्वारवाला और अप्रत्यक्ष है, विद्वान् पुरूष शास्त्रोंद्वारा ही उसके स्वरूपका निर्णय करते हैं। अतः दूसरे वक्तालोग जो धर्मका तत्त्वको नहीं जानते, वे सुन्दर युक्तियुक्त वचनोंद्वारा लोगोंके विश्वासको नष्ट कर तब वे श्रोतागण प्रत्यक्ष उदाहरण न पाकर परलोकमें नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। जो धर्म प्रत्यक्ष है, अधिक सुखमय है, आत्माके साक्षित्वसे युक्त है, छलरहित है तथा सर्वलोकहितकारी है, वह धर्म क्षत्रियोंमें प्रतिष्ठित है। युधिष्ठिर ! जैसे तीनों वर्णों के धर्मोंका पहले क्षत्रिय-धर्ममें अन्तर्भाव बताया गया है, उसी प्रकार नैष्ठिक ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और यति-इन तीनों आश्रमोंमें स्थित ब्राह्मणोंके धर्मोंका गार्हस्थ्याश्रममें समावेश होता है। राजेन्द्र ! उत्तम चरित्रों (धर्मों) सहित सम्पूर्ण लोक राजधर्ममें अन्तर्भूत हैं। यह बात मैं तुमसे कह चुका हूँ। किसी समय बहुत-से शूरवीर नरेश दण्डनीतिकी प्राप्तिके लिये सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी महातेजस्वी सर्वव्यापी भगवान् नारायण देवकी शरणमें गये थे। वे पूर्वकालमें आश्रमसम्बन्धी एक-एक कर्मकी दण्डनीतिके साथ तुलना करके संशयमें पड़ गये कि इनमें कौन श्रेष्ठ है ? अतः सिद्धान्त जाननेके लिये उन राजाओंने भगवान्की उपासना की थी। साध्यदेव, वसुगण, अश्विनीकुमार, रूद्रगण, विश्वेदेवगण और मरूद्गण-ये देवता और सिद्धगण पूर्वकालमें आदिदेव भगवान् विष्णुके द्वारा रचे गये हैं, जो क्षात्रधर्ममें ही स्थित रहते हैं। मैं इस विषयमें तात्त्विक अर्थका निश्चय करनेवाला एक धर्ममय इतिहास सुनाऊँगा। पहलेकी बात है, यह सारा जगत् दानवताके समुद्रमें निमग्र होकर उच्छृंखल हो चलाा था।। राजेन्द्र ! उन्हीं दिनों मान्धाता नामसे प्रसिद्ध एक पराक्रमी पृथ्वीपालक नरेश हुए थे, जिन्होंने आदि, मध्य और अन्तसे रहित भगवान् नारायणदेवका दर्शन पानेकी इच्छासे एक यज्ञका अनुष्ठान किया। राजसिंह ! राजा मान्धाताने उस यज्ञमें परमात्मा भगवान् विष्णुके चरणोंकी पृथ्वीपर मस्तक रखकर उन्हें प्रणाम किया। उस समय श्रीहरिने देवराज इन्द्रका रूप धारण करके उन्हें दर्शन दिया। श्रेष्ठ भूपालों से घिरे हुए मान्धाताने उन इन्द्ररूपधारी भगवान्का पूजन किया। फिर उन राजसिंह और महात्मा इन्द्रमें महातेजस्वी भगवान् विष्णुके विषयमें यह महान् संवाद हआ। इन्द्र बोले-धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश ! आदिदेव पुराणपुरूष भगवान् नारायण अप्रमेय हैं। वे अपनी अनन्त मायाशक्ति, असीम धैर्य तथा अमित बल-पराक्रमसे सम्पन्न हैं, तुम जो उनका दर्शन करना चाहते हो, उसका क्या कारण है ? तुम्हें उनसे कौन-सी वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छा है। उन विश्वरूप भगवान्को मैं और साक्षात् ब्रह्माजी भी नहीं देख सकते। राजन् ! तुम्हारे हृदयमें जो दूसरी कामनाएँ हों, उन्हें मैं पूर्ण कर दूँगा; क्योंकि तुम मनुष्योंके राजा हो।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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