चतुःषष्टितम (64) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुःषष्टितम अध्याय: श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद
नरेश्वर ! तुम सत्यनिष्ठ, धर्मपरायण, जितेन्द्रिय और शूरवीर हो, देवताओंके प्रति अविचल प्रेमभाव रखते हो, तूम्हारी बुद्धि, भक्ति और उत्तम श्रद्धासे संतुष्ट होकर मैं तुम्हें इच्छानुसार वर दे रहा हूँ। मान्धाताने कहा-भगवन् ! मैं आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर आपको प्रसन्न करके आपकी ही दयासे आदिदेव भगवान् विष्णुका दर्शन प्राप्त कर लूँगा, इसमें संशय नही है। इस समय मैं समस्त कामनाओंका परित्याग करके केवल धर्मसम्पादनकी इच्छा रखकर वरमें जाना चाहता हूँ, क्योंकि लोकमें सभी सत्पुरूष अन्तमें इसी सन्मार्गका दिग्दर्शन करा गये हैं। विशाल एवं अप्रमेय क्षात्रधर्मके प्रभावसे मैंने उत्तम लोक प्राप्त किये और सर्वत्र अपने यशका प्रचार एवं प्रसार कर दिया; परंतु आदिदेव भगवान विष्णु से जिस धर्मकी प्रवृत्ति हुई है, उस लोकश्रेष्ठ धर्मका आचरण करना मैं नहीं जानता। इन्द्र बोले-राजन् ! आदिदेव भगवान् विष्णुसे तो पहले राजधर्म ही प्रवृत्त हुआ है। अन्य सभी धर्म उसीके अंग हैं और उसके बाद प्रकट हुए हैं। जो सैनिक शक्तिसे सम्पन्न राजा नहीं हैं, वे धर्मपरायण होनेपर भी दूसरोंको अनायास ही धर्मविषयक परम गतिकी प्राप्ति नहीं करा सकते । क्षात्रधर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। शेष धर्म असंख्य हैं और उनका फल भी विनाशशील है। इस क्षात्रधर्मके द्वारा ही शत्रुओंका दमन करके देवताओं तथा अमिततेजस्वी समस्त ऋषियोंकी रक्षा की थी। यदि वे अप्रमेय भगवान् श्रीहरि समस्त शत्रुरूप असुरोंका संहार नहीं करते तो न कहीं ब्राह्मणोंका पता लगता, न जगत्के आदिस्त्रष्टा ब्रह्माजी ही दिखायी देते। न यह धर्म रहता और न आदि धर्मका ही पता लग सकता था। देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ आदिदेव भगवान् विष्णु असुरोंसहित इस पृथ्वीको अपने बल और पराक्रमसे जीत नहीं लेते तो ब्राह्मणोंका नाश हो जानेसे चारों वर्ण और चारों आश्रमोंके सभी धर्मोंका लोप हो जाता । वे सदासे चले आनेवाले धर्म सैकड़ों बार नष्ट हो चुके हैं, परंतु क्षात्रधर्मने उनका पुनः उद्धार एवं प्रसार किया है। युग-युगमें आदिधर्म (क्षात्रधर्म)- की प्रवृत्ति हुई है; इसलिये इस क्षात्रधर्मका लोकमें सबसे श्रेष्ठ बताते हैं। युद्धमें अपने शरीरकी आहुति देना, समस्त प्राणियोंपर दया करना, लोकव्यवहारका ज्ञान प्राप्त करना, प्रजाकी रक्षा करना, विषादग्रस्त एवं पीडि़त मनुष्योंको दुःख और कष्टसे छुड़ाना-ये सब बातें राजाओंके क्षात्रधर्ममें ही विद्यमान हैं। जो लोग काम, क्रोध में फँसकर उच्छृखल हो गये हैं, वे भी राजाके भयसे ही पाप नहीं कर पाते हैं, तथा जो सब प्रकारके धर्मोंका पालन करनेवाले श्रेष्ठ पुरूष हैं वे राजासे सुरक्षित हो सदाचारका सेवन करते हुए धर्मका सदुपदेश करते हैं। श्राजाओंसे राजधर्मके द्वारा पुत्रकी भाँति पालित होनेवाले जगत्के सम्पूर्ण प्राणी निर्भय विचरते हैं, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार संसारमें क्षात्रधर्म ही सब धर्मो से श्रेष्ठ, सनातन, नित्य, अविनाशी, मोक्षतक पहुँचाने वाला सर्वतोमुखी है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मांनुशासनपर्वं में वर्णाश्रमर्ध का वर्णनविषयक चैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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