महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 18 श्लोक 14-25
अष्टादश (18) अध्याय: कर्ण पर्व
उसके सारे शरीर में अर्जुन के सुवर्ण भूषित बाण चुभ गये थे । इससे सुवर्णमय कवच धारण करने वाला वह हाथी उसी प्रकार शोभा पाने लगा,जैसे रात्रि में दावानल से जलती हुई औषधियों और वृक्षों से युक्त पर्वत प्रकाशित होता है। वह हाथी वेदना से पीडि़त हो मेघ के समान गर्जना करता,सब ओर विचरता,घूमता और बीच-बीच में लड़खड़ाता हुआ भागने लगा । अधिक घायल हो जाने के कारण वह महावतों के साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़ा;मानो वज्र द्वारा विदीर्ण किया हुआ पर्वत धराशायी हो गया हो। रणभूमि में अपने भाई दण्डधार के मारे जाने पर दण्ड श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध करने की इच्छा से बर्फ के समान सफेद,सुवर्णमाला धारी तथा हिमालय के शिखर के समान विशालकाय गजराज के द्वारा वहाँ आ पहुँचा। उसने सूर्य की किरणों के समान तीखे तामरों से श्रीकृष्ण और पाँचसे अर्जुन को घायल करके बड़े जोर से गर्जना की । इतने ही में पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उसकी दोनों बाँहैं काट डाली। क्षुर से कटी हुई, सुन्दर बाजूबन्दसे विभूषित,चन्दन-चर्चित तथा तोमर सहित वे विशाल भुजाएँ हाथी से एक साथ गिरते समय पर्वत के शिखर से गिरने वाले दो सुनदर एवं बड़े-बड़े सर्पों के समान विभूषित हुई। तत्पश्चात् किरीटधारी अर्जुन के चलाये हुए अर्धचन्द्र से कटकर दण्ड का मस्तक हाथी से पृथ्वी पर गिर पड़ा । उस समय खून से लथपथ हो गिरता हुआ वह मसतक अस्ताचल से पश्चिम दिशा की ओर डूबते हुए सूर्य के समान शोभायमान हुआ। इसके बाद अर्जुन ने श्वेत महामेघ के समान सफेद रंग वाले उस हाथी को सूर्य की किरणों के सदृश तेजस्वी उत्तम बाणों द्वारा विदीर्ण कर डाला । फिर तो वह वज्र के मारे हुए हिमालय के शिखर के समान धमाके की आवाज के साथ धराशायी हो गया ।।20।। तदनन्तर उसी के समान जो दूसरे-दूसरे गजराज विजय की इच्छा से युद्ध के लिए आगे बढ़े,उन सबकी सव्यसाची अर्जुन ने वैसी ही दशा कर डाली,जैसी कि पूर्वोक्त दोनों हाथियों की कर दी थी । इससे शत्रु की उस विशाल सेना में भगदड़ मच गयी। झुंड-के-झुंड हाथी,रथ,घोड़े और पैदल मनुष्य परस्पर आघात-प्रत्याघात करते हुए युद्धस्थल में चारों ओर से टूट पड़े थे । वे आपस में एक दूसरे की चोट से अत्यन्त घायल हो लड़खड़ाते और बहुत बकझक करते हुए मरकर कगर जाते थे। इसके बाद इन्द्र को घेरकर खड़े हुए देवताओं के समान अपनी ही सेना के लोग अर्जुन को घेरकर इस प्रकार बोले- ‘वीर ! जैसे प्रता मौत से डरती है,उसी प्रकार हम लोग जिससे भयभीत हो रहे थे,उस शत्रु को आपने मार डाला;यह बड़े सौभाग्य की बात है !। ‘शत्रुसूदन ! यदि आप बलवान् शत्रुओं से इस प्रकार पीडि़त हुए इन स्वजनों की भय से रक्षा नहीं करते तो इन शत्रुओं को वैसी ही प्रसन्नता होती,जैसी इस समय इनके मारे जाने पर यहाँ हम लोगों को हो रही है ‘। इस प्रकार अपने सुहृदों की कही हुई ये बातें बारंबार सुनकर अर्जुन को मन-ही-मन बड़ी प्रसन्नता हुइ्र । वे उन लोगों का यथायोग्य आदर-सत्कार करके पुनः संशप्तकगण का वध करने के लिए वहाँ से चल दिये।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|